Saturday, October 2, 2010
मेरा हमनशीं
मेरा हर ग़म अपना समझ पिया था
जिसने आँखों की घुलती हुई रोशनी को
लबों से चूमा था हथेली में लिया था
जो हरदम धड़कता था सीने में मेरे
जो चमचम चमकता था माथे पे मेरे
जो हँसता था तो कलियाँ खिलती थी दिल की
पल में मिलती राहें मुश्किल मंज़िल थी
जो औरो से था कुछ अलग मेरे दिल में
जो था मेरे संग-संग हर एक मुश्किल में
जिसने थामा था मुझको बाँहों में बाँहे डाले
जो आया था अंधेरे बनके उजाले
मेरा हमदम वो मेरा हमनशीं आ रहा है
मेरे मौला मेरा दिल घबरा रहा है
मेरे मौला मेरा दिल घबरा रहा है
-देवेन्द्र
Friday, July 9, 2010
आज
Wednesday, June 30, 2010
नन्हा कल्ला
Sunday, June 20, 2010
अब्बा
Tuesday, June 15, 2010
बार-गर्ल.(शाब्दिक कोलाज)
Sunday, May 30, 2010
कबाड़ी वाला
कोलतार-सी
धधकती देह पर
ठुकी-झाँकती दो पनियल आँखें
सूखते होंठ-कर्रे बाल
लिये अधखुले धूल से सने पपोटे
ताकता है वह कभी आकाश तो
कभी घास के विराट मैदान-सा रीता ठेला
और लगाता है ज़ोर-की आवाज़
”पेप्परला-कोप्पीला-ताबला-पेचपुर्ज़ा-खाली बोत्तल-कबाड़ला..”
और हाँफ कर बैठ जाता है
ड्योड़ी पर, घूरकर
अपनी छोटी होती परछाई को,
इंतज़ार करता है वह
आसाढ़ की पहली फुहार का....”
Friday, May 28, 2010
अपनी परछाई
उस रोज़
भीड़ जमा थी
रईस-बुर्जुआ-टुच्चे-शातिर
सभी तो मना कर रहे थे
जेस्चर भी उनका यही दर्शा रहा था;
”उसके जुड़वाँ हुए हैं……..,
वह वृक्ष-तल-वासिनी
मुक्तिबोध की वही पगली नायिका
वहीं अधजले-फिके-कण्डे और राख,
नहीं थी अब वह एकाकी,
चिपकी जिससे
दो नन्ही-नन्ही झाईं
सहसा भीड़ चिल्लाई,
“लड़कियाँ हैं........“
और भीड़ छँटने लगी, ठठाते हुए
कि तभी बज उठी थाली,
Wednesday, May 19, 2010
अहा !
Wednesday, May 5, 2010
चूहा मेरी बहन और रेटकिल
हद्द हो गई !
अब जा के मिला है जेब में,
वो बित्ते-भर का चूहा
जिसे कत्ल कर दिया था बवजह
कई बरस पहले,
मॉरटिन रेटकिल रख के
”नहीं, ये विज्ञापन कतई नहीं है
बल्कि ज़रिया था मुक्ति का..........“
पर फिर भी
चूहा तो मिला है !
और मारे बू के
छूट रही हैं उबकाईयां
जबकि उसी जेब में
-हाथ डालें-डालें गुज़ारा था मैंने जाड़ा
-खाना भी खाया था उन्हीं हाथों से
-हाथ भी तो मिलाया था कितनो से
तब भी,
न तो मुझे प्लेग हुआ
न ही किसी ने कुछ कहा..........“
पर तअज्जुब है कि,
कैसे पता चल गया पुलिस को,
क्या इसलिये कि
दिन में एक दफे जागती है आत्मा,
और तभी से मैं
फ़रार हूँ................,
और भी हैं कई लोग
जो मेरी फ़िराक़ में हैं
जिन्हे चाहिये है वही चूहा,
ये वही थे
जो माँगा करते थे मेरा पेंट अक्सर
इसीलिये मैं नहाता भी था
पेंट पहनकर,
(“था न यह अप्रतिम आईडिया..”)
पर,
अंततः मैं पकड़ा जाता हूँ.....
ज़ब्ती-शिनाख्ती के
फौरन बाद
दर्ज होता है मुकद्दमा
उस बित्ते से चूहे की हत्या का,
और हुज़ूर बजाते हैं इधर हथौड़ा
तोड़ देते हैं वे
अप्रासंगिक निब को तत्काल
और मरने के स्फीत डर से बिलबिला जाता हूँ मैं
कि तभी ऐन वक्त पर
पेश होती है
चूहे की पीएम रपट
कि भूख से मरा था चूहा,
इसलिये मैं बरी किया जाता हूँ
“बाइज़्ज़त बरी”
हुर्रे........................।”
“फू..................”
आप सोचते होंगे कि क्या हुआ
फिर रेटकिल का???
आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं,
”हाँ, मैं नशे में हूँ
श्श........श्श..........श्श.....श्श...”
(बहुत धीरे से, एकदम फुसफुसा के..)
बहन को खिला दिये थे
वे टुकड़े चालाकी से
क्यूँकि शादी करी थी उसने
-किसी मुसल्मान से
-खुद के गोत्र में
-किसी कमतर जात में
हा...हा...हा...हा...हा...हा....”
’फिलहाल आत्मा सो रही है....”
और मॉरटिन रेटकिल भी खुश है
क्योकि इस बार चूहा नहीं
बल्कि बहन मरी थी ठीक बाहर जा के.....।”