चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Monday, July 14, 2008

मेरा पुनर्जन्म

रात्रि के अन्धकार को आता देख
संध्या सोच रही थी
मेरा अंत इतना
भयानक, डरावना है
क्षण-क्षण निकट आता
यह अन्धकार क्या
मेरी हताशा ; मृत्यु या अज्ञानता
का प्रतीक है
कि और तभी
पल-पल ,
क्षितिज में परिवर्तित होते दृश्य
सुने नभ में
तारों की झिल-मिल ;
बदलियों का नर्तन
शने:-शने:
अन्धकार को
भौर कि आपतित किरणें
प्रभात कि ललाई से ,
रंगता आस का आभा मंडल
ये सब क्या मेरी विजय या
मेरा पुनर्जन्म

याद

सदियों से जो बझवट होने का
दंश चुपचाप झेलती रही
आज वह परित्यक्ता कहलाई जाती है
वह पुरूष
जिसने बेशर्मी से आरोप गढ़-मढ़ा था
अब दूसरा विवाह कर जीवन
बिता रहा है
इस सब मै उसी स्त्री का मुक्त हाथ था
जिसने पुरूष को जना था
आज
पता नहीं किसके
पुत्र को वारिस समझ पालती है
सब जगह चुप्पी है
खामोशी हे
मसान-सी शान्ति है
पहली की याद आज भी घर के
हर कोने मैं बसती है ।

निरीह बाल

अकस्मात्
गोरी-सी पूंजीवादी
पिच्छल टांगों में
दमन के बावजूद
उग आया कहीं से
वह नन्हा -शैतान काला बाल
और हतप्रभ वह आत्ममुग्धा
ले हाथ में
गंडासे-कुल्हाड़ी -आरे
चीरती है अपनी सुवेसल टांग
और जड़ तक पहुँच
विश्वजयी मुस्कान लिए
खींचकर
उस
हठी बाल को
पटकती है
खून से सनी सतह पर
और अवतरित हो समाजों में
दिखलाती है अपनी जख्मी टांग को
जिसे घूरते है पुरूष
और
भाग्यवान ही चूमता है
अंततः भर जाता है उसका मुंह खून से
निरीह बाल के

मेरा घर

आँख बचा कर
चुपके से
कोने में
पानी की टंकी के पास
उग आया बालवृन्द
पीपल का
और फ़िर
धीमे से पीछे छोड़
शैशव को
शुभ्र - ललाम अंतहीन गगन को चूम
सीधा-सा तन कर खड़ा
उछाह से भरा
वह युवा वृक्ष
फाड़ बैठा आवेग में
कंक्रीट की वह विस्तृत छत
और फ़िर हुआ आरम्भ तुमुल संघर्ष
व्यक्तिवादी हाथों में
कुल्हाडियों और आरियों से
घिरा वह युवा झुटुंग
सीना तान दृढ़ता से
उद्-घोष करता है
की यह मेरा है घर
जहाँ तुम हो खड़े

आस

मन के संघर्ष समर में
उठती लहरों का
अंतहीन सागर में
वेदनाओं के ऊँचे-ऊँचे शिखर
रेगिस्तानी धूप में
मृगमरीचिका जैसी श्वास
अनंत भावनाएँ
अनन्य होने की चाह में
हो गया उद्देशहीन जीवन
बहता समय
पीछे छूटता जीवन-राग
थमा हुआ जीवन चक्र
निराशाओं का
घाना कुहासा
धुंधले से जीवन रंग
फ़िर भी है कहीं थोडी- सी ही सही
जीवन जीने की धुंधली आस

टूटते सपने

उस दिन खाने के बाद जब हाथ धोय
और तोलिये से पोंछे
और जब बैठक मै आ गया तो मेरा
ध्यान हाथ की तरफ़ गया
उँगलियों में दाल लगी हुई थी
यह देख बरबस बचपन याद आ गया
जब घंटी की आवाज सुन हम भाई-बहिन
जल्दी में बिना ढंग से हाथ धोय
दौड़कर दरवाजे की तरफ़ चले जाते
जा कर स्टूल रख कर उस पर खड़े हो
दरवाजा खोलते या फ़िर
माँ का इंतजार करते चीख-चीख कर उन्हें बुलाते
बाहर पिताजी होते जो बाजार से आते थे
फुदक-फुदक कर हम सब उनके पीछे हो लेते
एकदम शांत चुपचाप अच्छे बच्चों की तरह
हम सब व्यवहार करते
उनके लिए हम दौड़ टंकी का पानी ले आते
मटका ऊपर रखा था औए फ्रिज था नहीं
तब माँ डाट लगाती और मटके से पानी लाती
फ़िर लाइन से हम इंतजार करते लेकिन
पिताजी आराम करने चले जाते , माँ भी
किचिन मै घुस जाती , तब हम बैग को
उलट-पलट कर देखते
तो सिर्फ़ साग सब्जियां ही दिखती
एक दूसरे का चेहरा हम देखते
क्या कहें , क्या बोले समझ मैं नहीं आता
ऐसा कई बार होता है जब हमारे सपने टूटते
वह सपने जो आठ-आने की टॉफी मैं बसे थे

बहन

पहले मेरी बहिन को एक घंटा लगता था
साड़ी पहननें में
पहननें के बाद भी
ठीक होती ही रहती थी जब तक
कितना चिढ़ती थी
मेरे चिढ़ाने पर और
प्रसन्न होते थे घर वाले यह देख कर
मगर फिर आधा घंटा
पन्द्रह मिनट
अंततः झटपट
अब भी मैं चिढ़ाता हूँ
पर अब नही चिढ़ती वह
वरंच हंसती है
सूखे होठों पर जबरन
ओढ़ी गई हँसी
फंस जाती है मेरे भीतर तक

माँ

मुझ से दूर ही रह रहीं हैं
माँ की चिता से उठती लपटें ,
मैं स्फुलिंग से डरता था
माँ को अब तक यह याद है