कोलतार-सी
धधकती देह पर
ठुकी-झाँकती दो पनियल आँखें
सूखते होंठ-कर्रे बाल
लिये अधखुले धूल से सने पपोटे
ताकता है वह कभी आकाश तो
कभी घास के विराट मैदान-सा रीता ठेला
और लगाता है ज़ोर-की आवाज़
”पेप्परला-कोप्पीला-ताबला-पेचपुर्ज़ा-खाली बोत्तल-कबाड़ला..”
और हाँफ कर बैठ जाता है
ड्योड़ी पर, घूरकर
अपनी छोटी होती परछाई को,
इंतज़ार करता है वह
आसाढ़ की पहली फुहार का....”
marmik...
ReplyDeleteAre wah! kya tasveer kheench ke rakh dee!
ReplyDeletebahut hi marmik rachna.....
ReplyDeleteसटीक शब्द चित्रण ...
ReplyDeleteबहुत सही!! बढ़िया रचना!
ReplyDeleteतारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
ReplyDeleteMindblowing maja aagaya......
ReplyDeleteबढ़िया ....
ReplyDeletekmaal ki hridya chhoonewali rachna.
ReplyDeleteसही!! बढ़िया
ReplyDeleteआपने बहुत शानदार लिखा
http://mydunali.blogspot.com/
फुहार का इंताज़ार तो हमें भी है
ReplyDeleteमार्मिक ! अच्छी प्रस्तुति
ReplyDelete...behatareen !!!
ReplyDeleteआसाढ़ की पहली फुहार का....”
ReplyDeleteso is every one waiting.........
nice one............
नज़र के सामने से गुज़र गई पूरी फिल्म !
ReplyDeleteआईये, मन की शांति का उपाय धारण करें!
ReplyDeleteआचार्य जी
रचना का कथ्य और भाव जमे, शैली भी मगर कुछ है जो कम है। शायद मैं ठीक से जोड़ नहीं पाया अपने आप को। "छोटी होती परछाईं" से नहीं जुड़ा - दुपहर होने को है, यह समझ में आया - पर इसके तुरन्त बाद "आसाढ़ की फ़ुहार" से वह बिम्ब नहीं बना जो अपेक्षित था।
ReplyDeleteकुल मिलाकर रचना उत्तम है, पर और बेहतर की अपेक्षा है आपसे - "बहन और चूहामार" ने जो पैदा की है।
बहुत ही मार्मिक दृश्य उपस्थित किया आपके शब्दों ने....
ReplyDeleteमौसम को इंसानी जज़्बे से जोड़ कर बेमिसाल लिखा है ... सजीव चित्रण ...
ReplyDeleteप्रणव जी, आपकी कविता का शीर्षक पढ़ते ही घर के सामने से निकलता कबाड़ीवाला नज़रों के सामने घूम गया...कविता अच्छी है. जीवन का संघर्ष दर्शाती हुई..
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना।
ReplyDeletebahut badhiya...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ।
ReplyDeleteआजकल कहीं व्यस्त हैं क्या आप? नई लिखाई कब आएगी भाई?
ReplyDeleteसच क बहुत बेहतरीन चित्रण----अच्छी कविता।
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