रोज दरीचे खोलकर
देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
बाहर आ कर पाता हूँ
बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
स्नेहसिक्त आँखे
और डाल देता हूँ
एक लोटा रस्मी पानी
मुस्कराती है वह तब भी
छूता हूँ जब मै उसके
पियराते पत्ते
बर्गरेज अभी दूर है
चश्मा भूल आया हूँ मेज पर वो रखा है
मैं मुड़ता हूँ
गिरती है कुछ बूंदे आंसुओं की
पलट कर देखता हूँ
मुझे लगता है जैसे माँ बेठी हो सामने
Thursday, July 24, 2008
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