चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Friday, January 22, 2010

माँ के बारे मे

माँ के बारे मे

जाने कैसे??? उन्हें

पता चल गया कि मैं एक कवि भी हूँ

आदमी होने के अलावा

और फिर तब,

-नक्सलियों ने

-फिदायीनों ने

-आत्मघातियों ने

सबने

समवेत होकर

मोबाइल पर मैसेज किया

कि मुझे कविता सुनानी है

उनके बीच

-प्रेमभरी

-वासनामयी

जिसमे ज़िक्र हो लड़कियों का बेसाख़्ता..

और हो सके तो कुछ

लड़कियाँ भी ले आना,

जो स्टेशन किनारों पर

इशारों से बुलाती हैं............अक्सर.....।

पर.......

मैं पहुँचा खाली हाथ,

तलाशी में मिला उनको

-कविताओं का सिर्फ बन्डल

और खाने का छोटा-सा डब्बा,

वे ले गए मुझे

एक ओर

कैंप से दूर

चुपचाप.....

उनकी मूछें थीं हल्की-सी

वो दुबले थे पतले थे और कड़ियल भी

उनकी जेबें RDX से भरी थी

उन्होने सुनना चाहा वो, जो मैं लाया था

और फिर कई घंटों तक वे सुनते ही रहे

मेरी कविता......

जिसमे एक लड़की थी,बेहोश मगर सुन्दर

उसका गुदाज़ जिस्म

उसकी लरज़िश

बेहिसाब उसके चुम्बन,

ले गया मैं उनको प्रेम की सुरम्य वादियों में,

वासना के बीहड़ मे,

मगर वे चुप ही रहे.....शांत,

न कोई क़हक़हे

न कोई तालियाँ

न कोई मदहोशी

न ही अभिनन्दन,

था तो सिर्फ विस्मयी सन्नाटा

और प्रश्न पूछ्ती वे सर्द आँखें

माँ के बारे मे कभी लिखते हैं बड़े भाई ?

.........................और......................।

भर आई मेरी आँखें देख उन्हें

हाथों मे कसके दबाए मेरी माँ की रोटियाँ

-देख रहे हों जिसमे शायद अपनी माँ का अक्स

-सूँघ रहें हों जैसे अपनी माँ की महक

और.......और.......और.............

फिर मैं चल दिया.

और चलते-चलते दौड़ता ही रहा उस रात

एक कगार से दूसरे तक.........।

प्रणव सक्सेना amitraghat.blogspot.com

Saturday, January 9, 2010

मुर्गा

मुर्गा
हर एक जन्मदिन पर मेरे
मुर्गा कटता है।
उसकी गर्दन पर
आहिस्ता-आहिस्ता फिरती छुरी
को महसूस किया जाता है अक्सर
खाना खाने के फौरन बाद
और मर्सिया गाता है पूरा परिवार;
फिर उसकी चबी हड्डियों को बचे चावल को और
गंधाती प्याज को फेंक देते हैं
पालतू कुत्ते के सामने लप-लप खाने के लिये;
रात भर जी भर के आती हैं
डकारे और सपने में दिखता है मुर्गे का तड़पना...
और .....सुबह होते ही
जुट जाते हैं हम सब
बचा हुआ मुर्गा खाने के लिये
क्योंकि सीज जाता है वह तब तक..।
प्रणव सक्सेना “amitraghat.blogspot.com”

Thursday, January 7, 2010

तरुणाई के पार

उस
तरूणाई के अंतिम पहर
जब मैने उसे
ठठाते-उछलते-कूदते-धप-धड़ाम
गिरते उठते देखा था
मगर
सरलता के अवसान
की उस घड़ी
के साथ ही
वह लड़का अब बड़ा-सा दिखता है
शबल पृष्ठों से भरी मेगज़िन को वह
बेहिचक पीछे से पलट
सस्मित देखता है !