चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Friday, May 28, 2010

अपनी परछाई

उस रोज़

भीड़ जमा थी

रईस-बुर्जुआ-टुच्चे-शातिर

सभी तो मना कर रहे थे

जेस्चर भी उनका यही दर्शा रहा था;

उसके जुड़वाँ हुए हैं……..,

वह वृक्ष-तल-वासिनी

मुक्तिबोध की वही पगली नायिका

वहीं अधजले-फिके-कण्डे और राख,

नहीं थी अब वह एकाकी,

चिपकी जिससे

दो नन्ही-नन्ही झाईं

सहसा भीड़ चिल्लाई,

लड़कियाँ हैं........

और भीड़ छँटने लगी, ठठाते हुए

कि तभी बज उठी थाली,

लड़का भी है....,

गोरा-चिट्टा

गोलमटोल.......

फिर घिर आई हतप्रभ भीड़ में

जाने कितनी चमक उठी

दर्पित-दपदप-आँखें.....,

तलाशने लगी अपनी परछाई.........।