चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Wednesday, September 24, 2008

मेरी बेटी

आसढ़ का दिन था चारों और फैले बादलों के थान
और बारिश की गिरती रिमझिम फुहार ओसारे में खड़ी
उत्फुल्ल थी लली माँ गई थी बाजार खिन में लिया उसने ठान
चुन्नी को फैंट बाँहों को चढ़ाया
जैसे तैसे साना आटा टूटे कुछ नाखून हुई
दुखी पर फ़िर से काम में वह जुटी
परात में जमाया परथन निकाला
लोई बनाई भली सी गोल कुछ बेडोल चकले पर बेला
पर वह उच्छृंखल सबके समक्ष बुर्जुआ
बेलन से लिपटी लली चटकी मुश्किल से किया विलून
किया उह झटपट लोई को परथन मैं
बूड़ाया हाथों पर धर धेर्य चूल्हा जलाया
ईंट की सी भट्टी घिर आया ज्यों जेठ का मौसम
पड़ते लू के थपेडे गुलनार से दप दप दमकते
लली के कपोल गोरे माथे च्यूता बेलिया भर
पसीना गिरता गुस्साए तवे पर छन...............
नीचे जमी मच्छरों की बैठक तभी आया केबीसी
द्वितीय बारी का मन ललचाया पर आया सबका ख्याल
अत: हुई फ़िर से लीन अबके प्यार से
रोटी के चमीटे
से उमेठे कान गर्व से भर खिल उठी रोटियां
पर अब बीरता के सब बाहर हुआ
कटी धर हाथ लली झल्लाई बिंग से हँसतें
बेलन की करी ठुकाई बारिश का यों गिरना
तनिक न भाया माँ की याद सताई
उत्साह का हुआ अंत तभी बजी कालबेल
बेटी खिली दौड़ती हुई आई माँ थी थकी माँ आज मैंने
रोटियां बनाई पर कुछ ही फूली
भाई ने खींच दी चोटी माँ बोली मेरी बेटी
चिबुक पकड़ पिता बोले लली हो गई बड़ी दादी ने
डपटा नहीं सयानी छोटे भाई ने जीभ चिढ़ाई
बड़ा बोला कच्ची थी रोटी बिटिया रूठी
माँ हँसी लड़को डांट
चूम ललाट मन ही मन बोली अब तो तू फंसी
मेरी बेटी