चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Friday, September 5, 2008

बस-स्टाप

वह
फ़िर आ रही है सर्माएतल्ख मैं
दिगंबर आकाश के नीचे खड़े
उसी बस-स्टाप पर
अलस्सबाह
और जैसे उठा के शटर
छू कर पाँव भगवान के
डिसप्ले मैं रखती है अपने जिस्म को
सदियों पुराना चिथड़ा शाल उतार के
पेट थोड़ा पिचका सा स्तन भी एक और लटका सा
अभी-अभी आई है अघाए शिशु को छोड़ कर
इस भूल से है उदास है
फ़िर भी मुग्ध है याचक शिशु की तृप्त मुस्कान पर ;
इधर गुजरतें हैं सरे राह गुरोह दर गुरोह
विण्डो शोपिंग करते सरीहन
मगर इससे बेपरवाह
समोती है वह ग्राहक के ख्याल
सुबह के नाश्ते दुपहर का भोजन रात का खाना
औ चुल्लू भर नोटों मैं ;
पर जोयों रपटता है दिन पत्ती पर ठिठकी ऑस सा
शहर के पैसार में घुसती सर्द हवा से खाहिफ़
दस्तक देती रात मैं तब भी नहीं औढ़ती
है वह शाल
ढंप जाता है चूंकि जिस्म इससे और गिरा देती ,
बोहनी की जोह मैं अंततः दाम गोश्त के
मगर तब भी वह मायूस है कई रोज से
जगह-जगह जलते चूल्हों
से उठते ध्रूम से
लगती हे भूख हूकता है ह्रदय और गूंजता है रुदन
शिशु का सन्नाटा चीरकर कि तभी
वह देखती है
घर लौट रही थकी हारी एक युवती को
आज सरे नौ कर मैं खिंचतें नजर कि हद तक
और ढलक जाते है आंसू चुपके से
मानवता के पतन पर



वह बूढ़ा

उस कडाके के ठार में उपरनी से टांट ढांपे
डूबा सरापा गर्द में वह जर्जर बूढ़ा
जो रोशनपुरा की खड़ी चढाई पर
सरोसामान से लदा ठेला खींचतें-खींचतें
मन्झियार चढ़ाव आ खड़ा हुआ और टस से मस नहीं हुआ
जिसके सलवटी लिलार से ढलकता है पसीना
और कभी भी वह रपट सकता है
जिसके एक और राह से सटी झुग्गियों में से
अपना सा नाता समझ सब उसे दुबीचा से देखतें हैं
मगर वह अनुभवी अपने में तल्लीन ताजरिब से खड़ा
परिस्थिती को तौलता हैं और तर होती बरोनियों के
सूखने की जोह में ढांस को बजब्र रोकता है
दूबदू जिसके दुतरफा धिन्गाई से धापती
देसी देसावरी गाड़ियों के पल्लड़ और पार्श्व में स्थित
जुगादरी हनुमंत बुतकदा
मुस्लमान होकर भी
चुपके निहुरता है और किसी अज्ञात पुरचक से
ऐंठी पिराती फिल्लियों पर जोर लगा
धूजते पैरों को पुनः थामता है
वह अपने इस जीवन से निरवार होना चाहता है
की तभी अकस्मात
सम्मुख उसके बाट जोहती परित्यक्ता बिटिया
और ठण्ड में ठिरता नंग धढंग धेवता दिखता है
उन्हे देख उसास कर वह पुनश्च जीवन से गस जाता है
और अपने मैं ही कर संलाप
सरिया कर सकत अपनी
जीवन को ठेले पर लादे चल पड़ता है
स्मृति मैं उसके दशकों पूर्व मरी माँ का
उष्ण स्नेह स्पर्श और फीकी अरहर दाल में
मिर्चा का धुंगार तिरता है

क्रांति

उठो,उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका जिन्होंने उसे
कार मैं खिंचते दूर -देर तक देखा है
जो मुंह दबा हँसतें हैं और
असंख्य किरचों से
बिधि -दहपट -आधी उधडी
देह देखने की त्रीव इच्छा से जुटते हैं ,
जो उसकी करुण टेर
सुनकर भी अनसुना कर
दुरते - दुर्राते निकल गए
और जो
सरिश्ता पांतों में बंकाई से उसे देख कर
उत्तप्त उच्छवसन से दरेरते हाथ हैं
जो फेला समझ
प्रतिरूप उसकी उसके गुजरते ही
हेलकर दरीचों के कांच
ढांपती है तुंरत कनात से
और खटखटाते हैं जो कपट
निस्तब्ध अर्धरात्रि को
नगरवधू मान कर
जो रोक सकते थे मगर रोका नहीं जिन्होंने
परिसरण करती ही रही कदराई
रक्त बन जिन शिराओं में
जो खड़े ही रहे तावत
मृत आत्मा की बजबजाती लाश
काँधे लिए
हैबतनाक चुप्पी ओड़कर
उठो उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका .....
की तभी तिमिर भेदती आती है आवाज ठक की
बह उठा मृत रक्त मेरे ही कपाल से
और में स्तब्ध डबकोंहा सा जो बीङिया बन एकंग खड़ा था
आहत हो गिर धरा पर सुनता हूँ तुमुल संघोष
आगत क्रान्ति के पदचाप का
उस पत्थर को चूम
दम तोड़ता हूँ
अपने इस अंत पर मुग्ध हुआ जाता हूँ