चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Sunday, October 4, 2009

महंत (लुप्त होते देहाती शब्दों की नाट्य कविता)

जाने कऊन महोत्सव में
मदभरी फगुनहट में
ढाक तले आ जुटे अहा! देखो,
कुल-छोटे-बड़े-पदहैसियतानुसार- क्रमबद्ध

खुरदुरे-ठठाते-चुप्पे-चकमे-बदमस्त
बोली कसते भोले-भाले,
हज्जार-पानसो-सौ-पच्चास-बीस-दस-पाँच-दो
और एक के नोट और संग कछु कलदार

फिर आगे बढ़-बढ़ हुई जोहार
कि खिंच गया तभई सन्नाटा
आये थे सभी बनने महंत
झटपट हुआ आरम्भ तब बिरता परदरसन;
सर्वप्रथम मौन तोड़ता अरे...रे..रे..रे...रे..देखो,
उठा वह पलीद पचासा,”बार गरल पर मैं लुटा था,
चोलिया में भी एक बार ठुँसा था,मुझे बनाओ महंत
मिलेगा सबो को परमानन्द.....।“
(भीड़) “अये...हय...हा..हा...हा...अ...हा...हा..वा..ह..ह....”
कि झट खड़े हुए उखड़े केसरिये कलदार
”महंत बनबे का हमार नैतिक अधिकार

भगाओ इसे हियन से फैला रहा बेभिचार....।“
“,अरे.....रे....रे....रे...ऊ....आक...थू...”बलगम थूकता
उठा पिलास्टर बांधे भदरंगा पाँच ,
“बनाओ मुझे महंत मेरी है चलती की बेरी
कर दो मेरी बस अंतिम इच्छा पूरी ....।“
”च्च... च्च...च्च...च...बैठ जाओ चच्चा.....”
बोला बीड़ी फूँकता अधेला

“हाँ....हाँ.....” सीड़ निकालती बोली
लुप्तप्राय–भूली बिसरी चौअन्नी
के तभी उठा लड़खड़ाता–सकसकाता
संझवाती जलाती गंवई स्त्री के हाथोँ मे दबा

सप्ताह भर की सब्जी के लिये बना
वह भकुआ दस का नोट
जाने क्या बोला क्या बुदबुदाया
कि तभी कूद पड़ा वह जूँमुहाँ युवा बीस
जबरन निपोरते खीस , हुलसकर बोला,
“बच्चों का हूँ मैं यार आती मुझसे
डेरी मिलक दो पीलीज़ मुझे मुखिया बना दो.....।“ (भीड़)”हो...हो...हो...हो...टूँ...टूँ...खी...खी...खी....”
सूखे पात फेंक उसे भगाया,
अब की उठा इंगरेजी बूकता हज्जार

सबों को निबेरता महंत का मजबूत दावेदार
अ...ह...ह...ह...चेहरे पर नेतई मुस्कान
क्या ठसक वाह-वाह क्या टिमाक

सगलगी करते संग उसके पानसो और बुर्जवा सौ
नजरों से छानकर थानक पूछा,
”अरे कहाँ गये वे नोट एक और दो....?”
यकायक गह्वर-सी चुप्पी तोड़्ते
उठ खड़े हुए वे बामन नोट

राह खड़ी भीड़ चीरकर चल पड़े हौले-हौले
मंच की ओर, रूँधी आवाज से बोले,
”हमसे (ओहो..) होती (अच्छा...) बोटों की
बारिस (खी...खी...खी...) बनती हमऊ से (महजी नमस्ते॥) सरकार क..क्योंकि

हम॥म।से मिलता रासन का एक किलो
घुना-गेंहू-लाल, भरते इसी से एक समय का पेट
बनाइये हमें ..महंत..हम..म..म.....................”
छा गई निस्तब्धता, थम गई पुरवाई

था केवल पत्तों का मर्मर
कि तभी ताव खाए पानसौ को रोककर
पूछ बैठा हज्जार चौंककर,
”ऐं...??...??...एक किलो घुना गेंहू वह भी लाल...

वाह-वाह सरकारी ढोरों का क्या खूब है कमाल...।“
फिर भर आई आंखें पोंछ्के

ले हाथों मे चुटकी भर गुलाल और टेसू की शाल,
”धन्य हो दद्दा सच्च में तुमहई हो महंत के काबिल
एक बेर का ही सही देते तो हो नया जीवन........।“

(भीड़) “हाँ....हाँ.....हाँ सच है ऐं ही है मुखिया के काबिल हो...हो हो..”।
और बज उठे दमामे–घन्ट–घड़ियाल होने लगी
जै जकार; बहने लगी फिर से मद भरी बयार
सर्र....र्र....र्र....र्र....सर्र....र्र....र्र....र्र....साएँ....साएँ....।
प्रण्व सक्सेना “अमित्रघात”
Amitraghat.blogspot.com

Tuesday, August 25, 2009

सेल्समेन

सेल्समेन
घास के विराट मैदानों की तरह
फैली सर्द रात के सन्नाटे
को चीरती है
- जैसे लकडहारे चीरतें हैं लकड़ी
-उसकी माँ की चीख
और हम सब बड़ जातें हैं
पोस्ट - मार्टम कक्ष मैं
मेरे सामने ही होता है शव विच्छेदन
और निकलती है उसमें से
-ढेरों मन गालियाँ
-दुस्तर लक्ष्य
-अंतहीन दबाव
-असंखय गुटकों के पाउच
-"कुत्तों से सावधान ""सेल्समेन आर नोट एलाऊड की पट्टियाँ"
तिरस्कार से बंद होते दरवाजों की आवाज
और ..........................और...............................और
एक कोने मैं दबे कुचले सहमे माँ के कुछ सपने ;
"आखिरी बार कब हंसा था ?
"मरने से कुछ देर ही पहले "
गीली रात ढलती है
भौर उमग रही है
रोशनियाँ पीली पड़ने लगती हैं

लम्बोदर

लम्बोदर
गिरती महीन जलराशि - मध्य
उस लम्बमान ताल उपात से सटे
संकुल वृक्षों की लसस डालियों
के पत्र्पुन्ज से आवृत स्थल पर
कार स्कूटर ट्रक ट्रालियों मैं
विराजित - विसर्जन के लिए
बाट जोहते लम्बोदर असंख्य - जनों के संग
अकस्मात
चीरकर
वह पगलाई स्त्री
ताल की अथाह गहराई मे चलते चलते
डूब गई उसके कांधे पर उसका
लम्बोदर था जो
भूख से तड़पकर
उसी दिन अंकोर मे सर रख कर
मरा था

राजा बुश

राजा बुश
हतप्रभ है वह
पश्चाताप -हीन व्यवस्थित अपराधी
रजा बुश कि
कैसे चल सकता है मुकदमा उन पर
क्या राज प्रसाद से पाई गई
एक मुर्गी के पर चबी हड्डियाँ और खून के छींटें से
मुकदमा बनता है ?
फ़िर भी राजा बुश पर चला-
--मुर्गी को क्या आपने काटा था राजा बुश
नहीं मरोड़ा था बेरहमी से-
--क्या आपने पर नोचने के लिए गरम पानी किया था ?
नहीं मैंने चुनचुन कर एक एक पर खींचा था
जब वह जिंदा थी-
--क्या किया फ़िर
शोरबा निकाला उसका -
--फ़िर पिया
फ़िर..............फ़िर..................
।उसकी हड्डियों को चबाया
--फ़िर क्या आपने पुट्ठों पर हाथ झाड़ कर चल दिए
नहीं कतई नहीं मैंने पुट्ठों पर हाथ नहीं झाडे
मैं एक कोने मैं बैठ गया
मेरे जेहन मैं मुर्गी थी
मैं खूब देर तक रोया ; उसकी मौत पर
फ़िर मैंने एक कविता लिखी
आसुओं मैं डूबी ,
--आपने कविता लिखी राजा बुश
हाँ (स्वर भर्राया था )
आप बरी किए गए राजा बुश

Wednesday, April 8, 2009

सभ्य वैश्याएं

सभ्य वेश्याँए
छोटे-छोटे नीची छतों के घर
जहाँ हर घर एक चकला घर
जिनकी अपनी ही एक गाथा
जिनका अतीत भी और वर्तमान और अनिश्चित सा भविष्य
जिनकी एक सी ही तस्वीर
जहाँ गन्दी-गन्दी टेढ़ी मेड़ी अनंत गलियां
साय में जिनकी कुकुरमुत्तों सी उगी व तनी दारू की भट्टियाँ
आसपास गंधाते कनस्तर - पीपे - घड़े
सड़क के किनारे पर खुली नालियाँ बदबू- खटास भरी नीचे ,
तैरती भारी हवा में घुंघरू की आवाज और तबले की भर्राई थाप
बाजारू गीतों के बोल
सध: जातों का रुदन
पैसों की छीना- झपटी ट्रेफिक की धीमी - चिढ़-चिढ़ी भनभनाहट
मांस के बाजार में इधर-उधर डोलती झाँई-माँई खेलती
बहुत चोटी पंख नुची लड़कियां
ग्राहकों को पटाने की होड़ और
लड़कियों की झल्लाहट जिंदगी की तलाश में मुक्ति की छटपटाहट
कला की आत्म हत्या कोठों से पलायन होटल-पब - डांस -बार -बस स्टाप भयावह सघन प्रतिस्पर्धा वैश्विक होता समाज भद्र-लोक से निकलती
ढेर सारी सभ्य वेश्यांए

Sunday, February 8, 2009

सुंदरतम सजनी

स्मृति-प्रिय सुंदरतम सजनी !
आया जब से तुम से मिल कर ,
ले - ले चुम्बन आलिंगन भर ,
नहीं भूलता मैं वह रजनी -
आच्छादित घन घोर घटा मैं,
पानी बरस रहा था रिमझिम ,
चकमक चमके विधुत-स्वर्णिम ,
अग-जग था अचित निद्रा मैं ;
आकर चुपके से पा अवसर ,
तुमने कितने धीरे - धीरे ,
हाथ बढ़ाकर मेरे नीरे,
था खींचा जब मेरा अम्बर ,
पाकर किंचित चेतनता को ,
करवट बदली ली अंगडाई ,
उसनींदी बाहें फैलाई ,
ज्यों ही मैंने ऊर्ध्व दिशा को ,
आई पुलकित जल्दी इतनी ,
लिए अतुल सुकुमार - शीलता ,
बाहु - पाश मैं, नहीं भूलता ,
स्मृति - प्रिय सुन्दरतम सजनी !

Wednesday, February 4, 2009

आत्मघाती का सच

उस औघड़ शाम में
जाने किस खंभार में
तार पर बैठी हल्ला करती लाल चिडिया
और आसमान पर टंगे - नीचे
गिरते रक्तिम बादल और
अरे हाँ !
था तो मैं भी वहीं
बूढ़े बोहड़ के नीचे उस
जन संकुल स्थल पर
जब हुआ था स्फोट
और उड़ गए थे
- सत्ताधीशों लोलुपों के
- कुछ नेताओं के
- मानसिक शोषकों के
- कुछ हरामियों के
- बिलावजह भूंकतें कुत्तों के
- बीच सड़क पर पागुर
करती जइया के
शरीर के चिथड़े
और फ़ैल कर काला पड़
गया लाल रक्त
पर वह जिंदा था जिसने
किया था यह कारनामा
चुपचाप देखता बैखौफ आंखों से से ख़ुद
की एक कटी टांग और एक कटा हाथ
कठहंसी हँसता किंतु उसकी
घोषणा करती आँखे कि
मुझ पर मुकदमा चलाओ
मेरा इलाज करवाओ
मुझे मेरी बिटिया को स्कूल से लेकर आना है

Wednesday, January 28, 2009

सूना जीवन

रोज़ के मानिंद आज फ़िर पसरा सन्नाटा है
सुनाई देता है बस सन्नाटे का
अट्टाहास
दिखाई देता है तो बस
गहन अन्धकार
खिलखिला कर हँसी थी कभी किसी
सदी
मेरा भी घर था
कभी
जहाँ एकांत ढूंढे नहीं मिलता था
खुशियों का सैलाब बहा करता था
घर वही है
समाज लोग वही हैं
पर सामाजिक बंधन टूट गए लगतें हैं
रिश्ते स्वार्थ सिद्ध हो गए हैं
फ़िर भी इक आस ने अब तलक
जीवन ज्योत जलाए रखी है
कि कभी तो संवरेगा मेरा सूना जीवन
लौट कर आएगी खुशी मेरे
घर आँगन

काफिर

उनकी नजरों मैं हैं हम इस कदर काफिर
ख्वाब मैं भी नजर
आज़ाएं तो हो जातें हैं नींद मैं गाफिल