चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Thursday, October 16, 2008

मेरी बहन

दरवाजे की आड़ खड़ी ,लिए हाथ मैं थाली, था जिसमे चावल काली मूंछ ; सुन रही थी बेटे को कहते बहन की चोटी को गाय की पूँछ , मंद मंद मुस्करा , कर रही थी झूठा गुस्सा "मारूंगी चपत तुझे , मत सता बहन को अपनी कुछ दिन का है जो हिस्सा " सुन माँ की बात लजाई युवती ; कर विभंग मार भाई को धमूका भागी हरिणी - सी वह चपला ; विछोह के शाश्वत सत्याभास से किंकर्तव्य - सा खड़ा है भाई उधर दृग भर आए पितृ के संग माता भी रोई अन्दर स्वर सुना सुबकती बहन भी है इस अचिर निस्तब्धता की निरंकुश सत्ता सह सके नहीं अक्षरवृन्द ; अचिरात सोख जल अग्नि अवलंब से थामगंध वह को सुगंध फैलाने वह लगे "टूटी तंद्रा ; तब समवेत हुए भूय सकल , खिल उठे आनन् सबके देख भाई का धूआ सम प्रदर्शन ,इधर धर चिबुक पर हाथ , सस्मित विलोक राव - चाव स्वर्ण - चूर्ण छींटता सूर्या अस्ताचल में जा छिपा , उधर पालकी में विराज नव वधु - सी यामिनी आ रही थी देखने नव युवती का स्वप्न में प्रिय संग विहार धीरे - धीरे दिवस हुए विगत ; प्रथानुकूल तब सगे सहोदर दूरस्थ निकटस्थ मुहं लगे मुंह बोले सम्बन्धी , तटस्थ , प्रतिवेश्य मित्र उपमित्र समस्त ले - ले कर आय नित नवीन प्रति नव प्रस्ताव अत:पर अत्तुतम लगा जो सर्व सम्मति से , भिजवाया निमंत्रण समादरणीयों को साग्रह से , ज्ञात तिथि पर हुआ आगमन थे सपरिवार , उतरे ठाट से कार से करते विहंगम दृषि्टपात; उधर ग्रह स्वामी भी तत्क्षण प्रस्तुत हो करते प्रतिनंदन हाथ प्रसार ; देख विवर से आगुन्तागम घटा धूम-सी मच उठी भीतर, सुना भ्रातव्य वीराव घन निनाद,तबभी व्यस्त ही बनी रही प्रिय -संदर्श-अभिलाषित युवती करती महा श्रृंगार ;कटिघेर -घार के ,सामने सप्रयास ,डाल चुन्नट ,स्कंध पर सजाये पल्लापहनी उसने साड़ी किंतु हो रहा दुरूह उसका तावत उसे संभालना ,होता था प्रवृत आँचल ढिठाई से,इधर-उधर विलोल पतन पथ पर अग्रसर वह बार-बार था गिरता जाता ;सहसा वह चौंक पड़ी ;निज -विचार-विवर्त से निकल सुन भाई का आलाप ,बुरी तरह से जो खटखटा रहा था कपाट ,चीख चिल्ला कर करता उपालंभ प्रहार "कन्या-दर्शन-समुत्सुक -धेर्यच्युत बैठे हुए समस्त, हो रहे जीजाजी भी अधीर ,अब तो खोल कृपा करके तू दर्भट" सुन वचन भाई के बिफरी वह क्रोध से जैसे-तैसे पहन कोकई साड़ी निकली वह कक्ष से ,किंतु थी वह अति विकल अब भी थी कंही-कंही ऊंची साड़ीतो कंही साया मुख दिखने को था तत्पर ;मुख दबा हँसी को कर नियंत्रित अभिभूत था भाई बहन का यह सहज रूप देखकर ; इतने में माँ आई लिवाने पर ज्यों देख वह छवि मनोहर ठगी-सी रह गई मानो स्वयं खड़ी हो युवती बनकर;झूलती लटोंको परे धकेल ,चुम्बित कर ललाट परसिक्त नयनो से भरा विशवास माँ ने लगा लली को अंक से उज्झटित-उद्व्वेगित -पुलक-प्रकम्पित-बनी-ठनी-बेल-बूट-अम्बार-से लड़ी-फदी भर उफाल चल पड़ी लिए हाथ में चाय-चूडा मार्ग में ओट में दीठ मारता भाई था खड़ा ,देख उस विदूषक को खिल उठा हँसी से उसका चेहरा ,दिया गया फ़िर संक्षिप्त परिचय उपस्थितों को पंक्तिबद्धबिना उपोद्घात गौर-वर्णा-मंजुलचित- मितभाषिणी-परस्नातिका - कंप्यूटर - शिक्षित-प्रशिक्षित - विभान्ति गृह कार्य दक्षिता एवं वर्तमानकाले निज विद्यालययीन प्राध्यापिका देख सुन भली भांति परिपृचि्छतहर्षित थे समस्त उसके आचरण से हृदयांगमकर छवि को उसकी थमाई एक सूची अचिरात पित्र्हस्त में - स्वर्णभूषण नगद राशि एवं कार - फ्रीज टीवी वाशिंग मशीन उत्तम भोजन बाराती जन मात्र हजारयही है केवल साध्य देना जिसमे अधिकतर अभी तो कुछ विवाह शुभ बेला पूर्व यदि यह नहीं स्वीकार तो यहाँ आना हुआ बेकार मुख खुला का खुला ही रहा स्तब्ध थे नयन सुन आगुन्ताको- उदगार,विस्मित पर्यश्रु भाव-ताव में अदक्ष गृहस्थ ने दिखाया उन्हें तत्काल -द्वार उस नीरव संध्या में प्रशांत उपस्थ ,सभी थे उदास ,की तभी आई विचित्रित चीर वसित बहन करने सबके दुःख का परिहार हंसती हुए चिबुक पकड़ भाई का बोली "अच्छा ही हुआ अब हम रहेंगे सदा साथ "हंस पड़ा भाई देख उन्हें खिल खिलाहट पुनः हो उठी निर्जातफ़िर बीते बसंत ,ग्रीष्म भी हुए विगत सुनी सबने झींगुर की लयबद्ध झंकार और बेंग विलाप जाड़ा भी देखो पत्र-सम-खड़कता थर-थर-कांपता हाथ हिलाकर चला गया;
हुए फ़िर आरम्भ , प्रयास अथक निरविच्छिन्न निरंतर युवती ने भी दिया विमन सर्वथा परिजन - साथ और सदा की तरह सहा पुरूष प्रधान अपसंस्कृति का निर्मम प्रहारओह ! धरा में धंसे हे देव प्रवर दृग मूंदे मंद हँसी क्यों हँसते हो क्या छिपा है कोई गूढ़ोत्तर इस मौन में अथवा प्रसन्न हो वर पक्ष के आराधन से देखो वे जो आय देखने भदंत कई दुकान अवस्तिथ प्रदर्शित वस्तु समझ दिए कैसे उत्तर उस सरल ह्रदय युवती देख कर, कन्या दुबली है थोडी लम्बी है रंग नहीं है साफ़ , परिवार भी है नंगा बूचा वर की बहन को हुई अस्वीकार सीधी साधी आंग्ल संस्कार विहीन अंत में सर्व प्रिय घोष जन्मपत्री नहीं परस्पर मिली क्योंकि कन्या में है प्रबल मंगल दोष किन्तु थी अभी शेष यातना की पराकाष्ठा , सहना था उसे आघात , मर्म को था जो भेदता , आए एक जुड़ुंगी लिए किंभूत प्रस्ताव बोले वे " कन्या नहीं रही अब कन्या हो गई वह अब तीस की , कर चुकी विवाह वय पार अतः अब नहीं उस हेतु इस धरा पर कोई संयोग शेष , एक रिश्ता है सुपात्र का आंखों में हे पड़ा , जाने कब से बाट में जोह हूँ रहा घर उसका स्थापत्य - सा, शून्य है मांग ,केवल दस वर्षीय बालक उसका भोलाभाला करना शोभित अट्टालिका को वह मातृविहीन ;वह विधुर थोड़ा सा ही बड़ा है किन्तु तुमने कभी सुना है , पुरूष क्या होता कभी बूढ़ा है ?उस रात सहसा उचाट गई नींद भाई की , आया कक्ष मैं देख ध्वांत मैं एक छवि निमग्न अवसाद था जिधर मौन भी , सन्नाटा भी था जहाँ था फैला थर थर विधूत अवयव आवेश से , पल पल छा रही मस्तिष्क पर विगत अनुभवों की छाया विकलता से हाथ मारती वह इधर उधर , बैठ वहीं दीवार अड़तल अज्ञात भावों को लिए अंतस मैं , ताकती आकाश थी ;दुःख था अगोचर अस्तित्व भी हुआ विलीन सुन पदाचार स्वर स्थिर ही वह रही , क्या बोलता भाई उससे , ढांढस भी क्या बंधाता मौन ही रह उसके मौन को वह समझाता ; सहसा वह उठ खड़ी हुई झटक कर अश्रुओं को नियति को नहीं स्वीकार तीर -सी निकल कक्ष से बादामी कापियों के स्तूप को जांचने वह लगी ; भाई देखता उसे तो कभी ताकता आकाश टिमटिमा रहा था जहाँ तम् से लड़ता तारा एक मातृ किन्तु भावान्तर तो अज्ञात था नव विभात के साथ हुआ रश्मियों का सतत पर्यास आय फ़िर से उसे देखने एक नवांगतुक ; कठिनता से गई युवती कक्ष में होने तैयार ज्यों पीठ फेर कर भाई मुडा त्यों खुल गया वह कपाट साड़ी अब नहीं रही दुरूह उसके लिए किन्तु मातृ पितृ का भगीरथ श्रम हो चुका था फलीभूत ,फ़िर आगे जो घटा ,उसी लिंग के मौन में वह था छिपा

Friday, October 3, 2008

पैसेंजर

छूटते पर्जन्य
वन-वनांतर
डांडे पर लगे झुरमुट
आड़े - तिरछे खजूर के सरल दरख्त
समाधिस्थ - झुटुंग - बोहड़ के
विलुप्त प्राय - प्रसृत - बलस्थ वृक्ष,
मेघो के राज्य में सिरोन्नत किए
विस्मयी - विमुग्धकारी - गिरिशिखर
उटज ; छोटे - छोटे स्टेशन
वित्त - निरापद खेत - खलिहान मध्य ठाड़े,
कुछ अवगणित उजके चुप
संवलाई नदियों के मदमाते - उफनते यौवन पर
आसक्त - मदालस - बूढ़नद ; गुजरते मठ , सूने पुल
रेला - सी चली लजाती - ठठाती कुछ युवतियां कतारबद्ध
अलसाय बैरियर ; परिपाश्व मैं खड़े अधीर नर - मुंड - ठट्ट ,
डगमगाती सर्पिल परि - पथ पर भागती
एक निर्वाच्य - बूढ़ाती-जर्जर - पैसेंजर
आभ्यांतर जिसके जन्गुम्फित - प्रशस्त जनरल कक्ष
जिसके जीवन से भग्नाश खाली पेटों की सालती पीडाओं से विक्षुब्ध
अभावजन्य कुंठाए क्षितिज ताकती तर - पर
हावका
भरते अधेड़ ; आदिम ग्रंथि से ग्रस्त लटकती
उँगलियों में पड़ी ढेर अंगूठियाँ
हांक लगते हाकर्स के कामिक झुंड
कौतुहल से भरे परिचपल बच्चे शांत ॠद्धालु
रूग्ण - लड़ -खड़ाते डोकरे , हारे गाढ़े ठसी परछिद्रान्वेशी नारियां
गप्प मारते परिवापित - शम्श्रुल - तरुण
कुछ सोढर- निघर घट ढोंग धतूर तथा विडम्बक
जीवन प्रभंजन झेलते
हा हा ही ही हु हु खी खी ठी ठी करते
मिश्रित जन समूहों के अंत हीन जमघट ; उधर एक कोने सिमटी
वह नतनयन घट बैठी वर्षाहत हहराती सवत्स
दिव्या रूप के प्रति अचेतन , संघट्टावलेप से जिसका दमकता पुतानन
कान में बिरिया - टूम होंठ छूती बुलाक
कंठ में बिछे सिक्कों का मुक्ताहार बाँहों में बहुट्नी
कलाई में चूडियों का निबंध
ठालिनी - धारित लंक
नग्न पावों में जावक
व अनवट ,
बीच - बीच में उधडे वस्त्र
देह से झरता अनपेक्षित उपेक्षित जोबन
विलोक उस नारी का वह वन्य
वृक्ष लताओं सा आदिम अरण्य रूप ,
आरम्भिक झिझक छोड़ते निर्निमेष ; भूलते
भूत
भविष्यत्
चितन जमती होठों पर फेफ्ड़ी
भरते
फुफ्फसों
में आदिम सुवास ,
छाती उस बोगी के
समस्त पुरषों पर
अचिर उत्तेजना अकस्मात ;
तभी जीने के लिए जन्मा
भूख से कसमसाया वह
नन्हा सध: जात , देख सुन उसका क्रंदन
जहाँ नहीं कोई अड़तल
ताहम विस्मृत कर
समस्त व्रीडाएँ
खोला उस स्त्री ने देव दुर्लाभय अमृत से
भरा परिवर्तुल स्तन स्तब्ध नक्त पाषाण खंड से जड़
सम्मुख देखते सहज सुलभ्य नारीक दुस्पर्ष अन्चीन्हित
ज़िग्यासाएँ
अब भी एकटक किन्तु नहीं थे वे भाव अब
उन आंखों में यथावत
वरन बड़ रही ठी ह्रदय की प्रखर वेदना और
हो रहा था निर्मल जीवन का उदय शनेः शनेः ,
सत्यत: यह कैसा सनातन
मानस
क्या करता इस द्रश्य में अपनी मातृ दर्शन अथवा
तिरता स्मृति पटल पर स्वयं का
चिंता हीन अनदेखा अदभुत शैशव , की तभी
ढँक लिया इस प्रछन्न
मर्म को शिशु के चोंकने के
विभू स्वर ने , उधर नारियों ने भी की तत्काल ओट
अलार - सी , टूट चुकी थी
समस्त श्रंखलाएँ
जड़ता की , बाहर बढ रही थी
पूर्वपेक्ष्या गति उत्फुल्ल वर्षा की रिमझिम फुहार की

Thursday, September 25, 2008

माँ

जाड़े की रात्री मैं ठिठुरती - कांपती
सूखे पत्र - सी हिलती , उकडूं बैठ
निहारती छप्पर को , कहाँ से आती ये हवा सोचती ;
पर न दिखा सामने पटविहीन पट
जहाँ से प्रवेश करती बेधड़क , निर्लज्ज हवा
विशाल अट्टालिकाओं के प्रशस्त उष्ण
प्रकोष्ठों से पिटी दिखा रही दादागिरी
मेरी माँ की पीठ खुली मगर कान तक ढकी साड़ी ,
बेलबूट की जगह ,छपे असंख्य छिद्र जिसमे अंत तक
दुर्बल काय मेरी माँ
पर प्रसारित - प्रशस्त बाहुपाश उसके ,
प्रगाढ़उष्णता से भरी करती स्वागत नित्य
लौटा जब मैं विकल ; समीप राखी शाँल
उड़ा
मुझे प्यार से कांपती उठती वह सुघड़
परोसती खाना मुझे एक रोटी व कुछ दाने दाल के ;
फिरती हाथ पुचकारती कहती "ले
बेटा बची आज एक ही रोटी खा गई में
निठल्ली पूरी पाँच बेठी बेठी "
अन्तिम निगल ग्रास शोण का माँ के हित
तनिक भी तो न कर सका ;लाख योनियोपरांत
देह मिली तो क्या जीवन बीते अभावों में
प्रारब्ध के विराम तक
धिक्कार है मुझ पर इन बाहुओं के बल पर
देख माँ को कोने मैं जो लेटी थी जो बरफ की शिला
सी ठंडी धरा पर ,
साड़ी को कफ़न सा लपेट
करवटें बदलती ; ओह ! माँ तू मर क्यों नहीं जाती ?
क्यों भुगत रही पीड़ा ,
किस प्रत्याशा से दांव लगाय बैठी मुझ निरुत्साही
पर ; सहसा चोंक पड़ा मैं इस निज कुत्सित विचार से
अंतरात्मा ने भी धिक्कारा , सोच माँ की
अविधमानता छलक उठे नयनों से अश्रु
समस्त देह के अवयव थर - थर काँप उठे
इस निज कुत्सित विचार से
आया मैं बाहर उठे बोझिल कदम
ध्वांत मैं विलोक फलक पर टिमटिमा
रहा तारा वाही एक मात्र कर रहा था जो अकेला ही तम् परिहार ,
मानो कह रहा हो मुझसे
माँ के विश्वास पर धर विश्वास तू होगा
प्रत्यस्त गमन इस अन्धकार का का एक दिवस
आएगा हँसता हुआ नव विभात ,खिलखिलाती रश्मियों का होगा
सतत् पर्यास " हाँ ठीक ही समझा
मैं इस दूरागत विचार को माँ के
ललाट को चूम कर उड़ा उसे शाँल
जुट गया मैं सुखद भविष्य की कल्पना को
साकार करने

Wednesday, September 24, 2008

मेरी बेटी

आसढ़ का दिन था चारों और फैले बादलों के थान
और बारिश की गिरती रिमझिम फुहार ओसारे में खड़ी
उत्फुल्ल थी लली माँ गई थी बाजार खिन में लिया उसने ठान
चुन्नी को फैंट बाँहों को चढ़ाया
जैसे तैसे साना आटा टूटे कुछ नाखून हुई
दुखी पर फ़िर से काम में वह जुटी
परात में जमाया परथन निकाला
लोई बनाई भली सी गोल कुछ बेडोल चकले पर बेला
पर वह उच्छृंखल सबके समक्ष बुर्जुआ
बेलन से लिपटी लली चटकी मुश्किल से किया विलून
किया उह झटपट लोई को परथन मैं
बूड़ाया हाथों पर धर धेर्य चूल्हा जलाया
ईंट की सी भट्टी घिर आया ज्यों जेठ का मौसम
पड़ते लू के थपेडे गुलनार से दप दप दमकते
लली के कपोल गोरे माथे च्यूता बेलिया भर
पसीना गिरता गुस्साए तवे पर छन...............
नीचे जमी मच्छरों की बैठक तभी आया केबीसी
द्वितीय बारी का मन ललचाया पर आया सबका ख्याल
अत: हुई फ़िर से लीन अबके प्यार से
रोटी के चमीटे
से उमेठे कान गर्व से भर खिल उठी रोटियां
पर अब बीरता के सब बाहर हुआ
कटी धर हाथ लली झल्लाई बिंग से हँसतें
बेलन की करी ठुकाई बारिश का यों गिरना
तनिक न भाया माँ की याद सताई
उत्साह का हुआ अंत तभी बजी कालबेल
बेटी खिली दौड़ती हुई आई माँ थी थकी माँ आज मैंने
रोटियां बनाई पर कुछ ही फूली
भाई ने खींच दी चोटी माँ बोली मेरी बेटी
चिबुक पकड़ पिता बोले लली हो गई बड़ी दादी ने
डपटा नहीं सयानी छोटे भाई ने जीभ चिढ़ाई
बड़ा बोला कच्ची थी रोटी बिटिया रूठी
माँ हँसी लड़को डांट
चूम ललाट मन ही मन बोली अब तो तू फंसी
मेरी बेटी

Monday, September 15, 2008

परिवर्तन

ज्ञात नहीं क्यूँ कर भूंकते हैं
विशाल अट्टालिकाओं में विचरते श्वान दल
बनताई - सी निस्तब्धता में पैहम
घर लौटते अथक - निरंतर मेहनत करके
थके हरे शराबी पर जिसको नहीं मिली
आज तय की गई उज्रत
और जो आगे चलकर
लड़खड़ा धड़ाम सा गिर पड़ता है
तब भी उस अर्ध चेतना में
संग्यापराध से उपजी वेदना के उल्लाप मैं
तिरता उकठी - मटियाफूस माँ का स्मरण और बहती
अवशता की लार है
बाहिज जिस पर
सड़कीय कुत्ते टांग उठा
बेझिझक मूतते हैं
और हँसतें हैं मृतात्मा की लाश उठाय
मुर्दे यह देख कर
पर कोई उस अंतस मैं नहीं झांकता
जो ह्रदय द्रावक पीड़ा और भयावह अकिंचनता से भरा है
जो अपनी माँ की के स्वप्नों को पूर्ण करने की
कोशिश में हाड़-तोड़ परिश्रम कर
जी-जान से जुटा है
वे ससीम स्वप्न जो पेट के गुरुत्व से बंधे हैं
जिन्हें पूरे करते करते संझा तक ढल जाती है
और वो बिखर जाता है ,
पर जब वह उठेगा भौर के झुरपटे मैं
हतचेता मैं जब माँ उसे सहलाकर हरुए उठाएगी
तब विलिश्ट कराहती मांसपेशियां मैं
भर नया विश्वास ताकत और विजिगिषा
वह फ़िर जुट जायेगा
परिवर्तन की आशा से





Friday, September 5, 2008

बस-स्टाप

वह
फ़िर आ रही है सर्माएतल्ख मैं
दिगंबर आकाश के नीचे खड़े
उसी बस-स्टाप पर
अलस्सबाह
और जैसे उठा के शटर
छू कर पाँव भगवान के
डिसप्ले मैं रखती है अपने जिस्म को
सदियों पुराना चिथड़ा शाल उतार के
पेट थोड़ा पिचका सा स्तन भी एक और लटका सा
अभी-अभी आई है अघाए शिशु को छोड़ कर
इस भूल से है उदास है
फ़िर भी मुग्ध है याचक शिशु की तृप्त मुस्कान पर ;
इधर गुजरतें हैं सरे राह गुरोह दर गुरोह
विण्डो शोपिंग करते सरीहन
मगर इससे बेपरवाह
समोती है वह ग्राहक के ख्याल
सुबह के नाश्ते दुपहर का भोजन रात का खाना
औ चुल्लू भर नोटों मैं ;
पर जोयों रपटता है दिन पत्ती पर ठिठकी ऑस सा
शहर के पैसार में घुसती सर्द हवा से खाहिफ़
दस्तक देती रात मैं तब भी नहीं औढ़ती
है वह शाल
ढंप जाता है चूंकि जिस्म इससे और गिरा देती ,
बोहनी की जोह मैं अंततः दाम गोश्त के
मगर तब भी वह मायूस है कई रोज से
जगह-जगह जलते चूल्हों
से उठते ध्रूम से
लगती हे भूख हूकता है ह्रदय और गूंजता है रुदन
शिशु का सन्नाटा चीरकर कि तभी
वह देखती है
घर लौट रही थकी हारी एक युवती को
आज सरे नौ कर मैं खिंचतें नजर कि हद तक
और ढलक जाते है आंसू चुपके से
मानवता के पतन पर



वह बूढ़ा

उस कडाके के ठार में उपरनी से टांट ढांपे
डूबा सरापा गर्द में वह जर्जर बूढ़ा
जो रोशनपुरा की खड़ी चढाई पर
सरोसामान से लदा ठेला खींचतें-खींचतें
मन्झियार चढ़ाव आ खड़ा हुआ और टस से मस नहीं हुआ
जिसके सलवटी लिलार से ढलकता है पसीना
और कभी भी वह रपट सकता है
जिसके एक और राह से सटी झुग्गियों में से
अपना सा नाता समझ सब उसे दुबीचा से देखतें हैं
मगर वह अनुभवी अपने में तल्लीन ताजरिब से खड़ा
परिस्थिती को तौलता हैं और तर होती बरोनियों के
सूखने की जोह में ढांस को बजब्र रोकता है
दूबदू जिसके दुतरफा धिन्गाई से धापती
देसी देसावरी गाड़ियों के पल्लड़ और पार्श्व में स्थित
जुगादरी हनुमंत बुतकदा
मुस्लमान होकर भी
चुपके निहुरता है और किसी अज्ञात पुरचक से
ऐंठी पिराती फिल्लियों पर जोर लगा
धूजते पैरों को पुनः थामता है
वह अपने इस जीवन से निरवार होना चाहता है
की तभी अकस्मात
सम्मुख उसके बाट जोहती परित्यक्ता बिटिया
और ठण्ड में ठिरता नंग धढंग धेवता दिखता है
उन्हे देख उसास कर वह पुनश्च जीवन से गस जाता है
और अपने मैं ही कर संलाप
सरिया कर सकत अपनी
जीवन को ठेले पर लादे चल पड़ता है
स्मृति मैं उसके दशकों पूर्व मरी माँ का
उष्ण स्नेह स्पर्श और फीकी अरहर दाल में
मिर्चा का धुंगार तिरता है

क्रांति

उठो,उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका जिन्होंने उसे
कार मैं खिंचते दूर -देर तक देखा है
जो मुंह दबा हँसतें हैं और
असंख्य किरचों से
बिधि -दहपट -आधी उधडी
देह देखने की त्रीव इच्छा से जुटते हैं ,
जो उसकी करुण टेर
सुनकर भी अनसुना कर
दुरते - दुर्राते निकल गए
और जो
सरिश्ता पांतों में बंकाई से उसे देख कर
उत्तप्त उच्छवसन से दरेरते हाथ हैं
जो फेला समझ
प्रतिरूप उसकी उसके गुजरते ही
हेलकर दरीचों के कांच
ढांपती है तुंरत कनात से
और खटखटाते हैं जो कपट
निस्तब्ध अर्धरात्रि को
नगरवधू मान कर
जो रोक सकते थे मगर रोका नहीं जिन्होंने
परिसरण करती ही रही कदराई
रक्त बन जिन शिराओं में
जो खड़े ही रहे तावत
मृत आत्मा की बजबजाती लाश
काँधे लिए
हैबतनाक चुप्पी ओड़कर
उठो उठाओ पत्थर
मारो फोड़ दो सर सावेग
उनका .....
की तभी तिमिर भेदती आती है आवाज ठक की
बह उठा मृत रक्त मेरे ही कपाल से
और में स्तब्ध डबकोंहा सा जो बीङिया बन एकंग खड़ा था
आहत हो गिर धरा पर सुनता हूँ तुमुल संघोष
आगत क्रान्ति के पदचाप का
उस पत्थर को चूम
दम तोड़ता हूँ
अपने इस अंत पर मुग्ध हुआ जाता हूँ

Thursday, July 24, 2008

माँ

रोज दरीचे खोलकर
देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
बाहर आ कर पाता हूँ
बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
स्नेहसिक्त आँखे
और डाल देता हूँ
एक लोटा रस्मी पानी
मुस्कराती है वह तब भी
छूता हूँ जब मै उसके
पियराते पत्ते
बर्गरेज अभी दूर है
चश्मा भूल आया हूँ मेज पर वो रखा है
मैं मुड़ता हूँ
गिरती है कुछ बूंदे आंसुओं की
पलट कर देखता हूँ
मुझे लगता है जैसे माँ बेठी हो सामने

Monday, July 14, 2008

मेरा पुनर्जन्म

रात्रि के अन्धकार को आता देख
संध्या सोच रही थी
मेरा अंत इतना
भयानक, डरावना है
क्षण-क्षण निकट आता
यह अन्धकार क्या
मेरी हताशा ; मृत्यु या अज्ञानता
का प्रतीक है
कि और तभी
पल-पल ,
क्षितिज में परिवर्तित होते दृश्य
सुने नभ में
तारों की झिल-मिल ;
बदलियों का नर्तन
शने:-शने:
अन्धकार को
भौर कि आपतित किरणें
प्रभात कि ललाई से ,
रंगता आस का आभा मंडल
ये सब क्या मेरी विजय या
मेरा पुनर्जन्म

याद

सदियों से जो बझवट होने का
दंश चुपचाप झेलती रही
आज वह परित्यक्ता कहलाई जाती है
वह पुरूष
जिसने बेशर्मी से आरोप गढ़-मढ़ा था
अब दूसरा विवाह कर जीवन
बिता रहा है
इस सब मै उसी स्त्री का मुक्त हाथ था
जिसने पुरूष को जना था
आज
पता नहीं किसके
पुत्र को वारिस समझ पालती है
सब जगह चुप्पी है
खामोशी हे
मसान-सी शान्ति है
पहली की याद आज भी घर के
हर कोने मैं बसती है ।

निरीह बाल

अकस्मात्
गोरी-सी पूंजीवादी
पिच्छल टांगों में
दमन के बावजूद
उग आया कहीं से
वह नन्हा -शैतान काला बाल
और हतप्रभ वह आत्ममुग्धा
ले हाथ में
गंडासे-कुल्हाड़ी -आरे
चीरती है अपनी सुवेसल टांग
और जड़ तक पहुँच
विश्वजयी मुस्कान लिए
खींचकर
उस
हठी बाल को
पटकती है
खून से सनी सतह पर
और अवतरित हो समाजों में
दिखलाती है अपनी जख्मी टांग को
जिसे घूरते है पुरूष
और
भाग्यवान ही चूमता है
अंततः भर जाता है उसका मुंह खून से
निरीह बाल के

मेरा घर

आँख बचा कर
चुपके से
कोने में
पानी की टंकी के पास
उग आया बालवृन्द
पीपल का
और फ़िर
धीमे से पीछे छोड़
शैशव को
शुभ्र - ललाम अंतहीन गगन को चूम
सीधा-सा तन कर खड़ा
उछाह से भरा
वह युवा वृक्ष
फाड़ बैठा आवेग में
कंक्रीट की वह विस्तृत छत
और फ़िर हुआ आरम्भ तुमुल संघर्ष
व्यक्तिवादी हाथों में
कुल्हाडियों और आरियों से
घिरा वह युवा झुटुंग
सीना तान दृढ़ता से
उद्-घोष करता है
की यह मेरा है घर
जहाँ तुम हो खड़े

आस

मन के संघर्ष समर में
उठती लहरों का
अंतहीन सागर में
वेदनाओं के ऊँचे-ऊँचे शिखर
रेगिस्तानी धूप में
मृगमरीचिका जैसी श्वास
अनंत भावनाएँ
अनन्य होने की चाह में
हो गया उद्देशहीन जीवन
बहता समय
पीछे छूटता जीवन-राग
थमा हुआ जीवन चक्र
निराशाओं का
घाना कुहासा
धुंधले से जीवन रंग
फ़िर भी है कहीं थोडी- सी ही सही
जीवन जीने की धुंधली आस

टूटते सपने

उस दिन खाने के बाद जब हाथ धोय
और तोलिये से पोंछे
और जब बैठक मै आ गया तो मेरा
ध्यान हाथ की तरफ़ गया
उँगलियों में दाल लगी हुई थी
यह देख बरबस बचपन याद आ गया
जब घंटी की आवाज सुन हम भाई-बहिन
जल्दी में बिना ढंग से हाथ धोय
दौड़कर दरवाजे की तरफ़ चले जाते
जा कर स्टूल रख कर उस पर खड़े हो
दरवाजा खोलते या फ़िर
माँ का इंतजार करते चीख-चीख कर उन्हें बुलाते
बाहर पिताजी होते जो बाजार से आते थे
फुदक-फुदक कर हम सब उनके पीछे हो लेते
एकदम शांत चुपचाप अच्छे बच्चों की तरह
हम सब व्यवहार करते
उनके लिए हम दौड़ टंकी का पानी ले आते
मटका ऊपर रखा था औए फ्रिज था नहीं
तब माँ डाट लगाती और मटके से पानी लाती
फ़िर लाइन से हम इंतजार करते लेकिन
पिताजी आराम करने चले जाते , माँ भी
किचिन मै घुस जाती , तब हम बैग को
उलट-पलट कर देखते
तो सिर्फ़ साग सब्जियां ही दिखती
एक दूसरे का चेहरा हम देखते
क्या कहें , क्या बोले समझ मैं नहीं आता
ऐसा कई बार होता है जब हमारे सपने टूटते
वह सपने जो आठ-आने की टॉफी मैं बसे थे

बहन

पहले मेरी बहिन को एक घंटा लगता था
साड़ी पहननें में
पहननें के बाद भी
ठीक होती ही रहती थी जब तक
कितना चिढ़ती थी
मेरे चिढ़ाने पर और
प्रसन्न होते थे घर वाले यह देख कर
मगर फिर आधा घंटा
पन्द्रह मिनट
अंततः झटपट
अब भी मैं चिढ़ाता हूँ
पर अब नही चिढ़ती वह
वरंच हंसती है
सूखे होठों पर जबरन
ओढ़ी गई हँसी
फंस जाती है मेरे भीतर तक

माँ

मुझ से दूर ही रह रहीं हैं
माँ की चिता से उठती लपटें ,
मैं स्फुलिंग से डरता था
माँ को अब तक यह याद है