ज्ञात नहीं क्यूँ कर भूंकते हैं
विशाल अट्टालिकाओं में विचरते श्वान दल
बनताई - सी निस्तब्धता में पैहम
घर लौटते अथक - निरंतर मेहनत करके
थके हरे शराबी पर जिसको नहीं मिली
आज तय की गई उज्रत
और जो आगे चलकर
लड़खड़ा धड़ाम सा गिर पड़ता है
तब भी उस अर्ध चेतना में
संग्यापराध से उपजी वेदना के उल्लाप मैं
तिरता उकठी - मटियाफूस माँ का स्मरण और बहती
अवशता की लार है
बाहिज जिस पर
सड़कीय कुत्ते टांग उठा
बेझिझक मूतते हैं
और हँसतें हैं मृतात्मा की लाश उठाय
मुर्दे यह देख कर
पर कोई उस अंतस मैं नहीं झांकता
जो ह्रदय द्रावक पीड़ा और भयावह अकिंचनता से भरा है
जो अपनी माँ की के स्वप्नों को पूर्ण करने की
कोशिश में हाड़-तोड़ परिश्रम कर
जी-जान से जुटा है
वे ससीम स्वप्न जो पेट के गुरुत्व से बंधे हैं
जिन्हें पूरे करते करते संझा तक ढल जाती है
और वो बिखर जाता है ,
पर जब वह उठेगा भौर के झुरपटे मैं
हतचेता मैं जब माँ उसे सहलाकर हरुए उठाएगी
तब विलिश्ट कराहती मांसपेशियां मैं
भर नया विश्वास ताकत और विजिगिषा
वह फ़िर जुट जायेगा
परिवर्तन की आशा से
Monday, September 15, 2008
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