चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Friday, March 6, 2015

अकोदिया की लड़की

ठोस
थी वो अकोदिया की लड़की
पार कर गई थी
कई पड़ाव
लड़कों की साईकिल चलाते-चलाते
दिखतीं हैं तो दिखें
गोरी पिण्डलियाँ
किसे पड़ी है घूरती नज़रों की,
मलिन
थी वो अकोदिया की लड़की
बुहारती थी उज्जैन की सड़कों को
गप्पें भी मार लेती थी
भरे दाने के छोर* बेचते लड़के से
आलीशन मकान के किसी कोने पर,
दूर-दूर तक सुनाई आती थी उसकी आवाज़ की खनक
कि टोकना पड़ता था उसे
कि चुभते थे
उसके
बेमतलब-बेझिझक-बेतरतीब-ठहाके
बेबूझ-सी रहती थी
अकोदिया की वो लड़की
अकसर……
छोर- हरे चने
Amitragaht.blogspot.com



Friday, December 27, 2013

अगहन की रात

                         
(फ्लैश बेक)
कितनी बेशर्म थीं तुम,
देखा था तुम्हें
अगहन की उस रात
बूचे पाँव
पास वाले डोबने पर
सानते हुए अपने पैरों को
गीली मिट्टी से
चुपचाप,
और फिर
चलीं आईं थीं
किस अभिमान से
घुटनों तक उठाए साड़ी;
रख कर जाँघ पर मेरी
वही कीचड़-भरा पाँव
जबकि सिर्फ़ दस ही तो बजा था
उस वक्त इंतज़ार था मुझे
कविता के कागज़ पर उतरने का
और तब सब कुछ छोड़कर
पूछा था ड्रामाई अंदाज़ में,
तो......अभी से रिझा रही हो मुझे, हूँ.....
और तुम चली गईं थीं
तुनक कर मुझे ठेलकर,
और फिर
थामकर हौले से तुम्हें
पूछा था मैंने
कि कैसे पता चला तुम्हें कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे पैरों पर
क्या उस रोज़ जब
चूम रहा था मैं
बिस्तर पर मिली ख़ानाबदोश पायल....
(तुम मौन ही बनी रहीं)
या फिर तब पहली दफ़े
उस रात जब छुआ था
हमने परस्पर
तब तुम सिमट गईं थीं
कितने भीतर खुद के
उस रात
सुना था मैंने तुम्हारे पाँवों का वह
आदिम उच्छवास........
(कुछ क्षण)
तो क्या देख लिया था
सबेरे आँगन में
तुमने मुझे
देखते हुए तुम्हें छिपकर,
छुड़ाते हुए
एड़ी का वो बासा महावर....
(तुम बरबस मुस्काईं पर बोली कुछ भी नहीं)
या फिर उस रोज़
बैंठीं थीं तुम पैंरों को
यूँ मोड़कर
जैसे बैठी हो किसी कथा में,
(तुम भूल गईं थीं पाँवों को ढ़ँकना साड़ी से )
तब सहसा तुम्हें आभास हुआ
पलटकर देखा था तुमने
मुझे टकटकी बाँधे,
.....उस दिन लड़ाई थी हमारी
तब भी
मुस्कराईं थीं तुम सब कुछ बिसराकर....
या कि समझ गईं थीं
मेरी आँखों में उतर आए मद को
क्योंकि देखा था मैंने
तुम्हें बाँधते हुए मुरवे पर वो
नज़र का धागा........
एक रात
(सलज्ज हँसी थी चेहरे पर तुम्हारे)
अच्छा ?? तो क्या अच्छा लगता था
मेरा तुम्हारे पैंरों को थामकर
आहिस्ते से धोना
बोलो...बोलो तो....और
तुम चल दीं थीं बेफ़िक्री से
मुझे पगलूराम बोलकर.....
(कुछ क्षण)
अगहन की उस उतरती रात, मुझे याद हो आईं
तुम्हारे सधःस्नात पैंरों पर ठिठकी वो बूँदे,
तुम्हारे पैरों की वो कनसुई
तुम्हारे ही भार से झुहिरते पैरों पर पड़ती वो चुन्नटें;
वो अचानक से बनते सुंदर चाप,
अँगूठे पर चाँदी का वो अनवट
वो बिछियों की झनक
मुरवे पर कसी गुजरिया की झनकार
नीचे लुरकती पायल में गँसे
बोरों का रूनझुन निनाद
तुम्हारा वो ठेठपन
वो अनबनाव..................
(फू.....मैं हार गया)
उस रात फिर पूछा था तुमसे लेकिन अंतिम बार
कि कैसे पता चला कि
मरता हूँ मैं तुम्हारे भूरे पैरों पर,
पर तुम........ चुप ही बनीं रहीं
मुझे याद थी वो तुम्हारी
दबी-दबी सी कूट हँसी,
और फिर आवेश में तुम्हें पकड़ कर कसके
मैंने बोला था
हाँ की थी तुम्हारे पैरों की पधरावनी अपने अंतर में...
तुम चकित थीं
और मैं विकल,
अगहन की उस रात
जाने कितनी देर मुझे एकटक निहारकर
पहली बार बोली थीं तुम कि
सच में नहीं मालूम मुझे कि कैसे पता चला मुझे,
प......र.....पर.........(तुम हकलाईं थीं)
(कुछ क्षण) सुनिए.......
और फिर
लिपटकर मुझसे
कहा था तुमने
बहुत ही धीमे से

कि मैं मरती हूँ आप पर.....

Wednesday, August 31, 2011

ORIGAMI SAMPAN BOAT

Saturday, October 2, 2010

मेरा हमनशीं

मेरे होने का जिसने मतलब दिया था
मेरा हर ग़म अपना समझ पिया था
जिसने आँखों की घुलती हुई रोशनी को
लबों से चूमा था हथेली में लिया था
जो हरदम धड़कता था सीने में मेरे
जो चमचम चमकता था माथे पे मेरे
जो हँसता था तो कलियाँ खिलती थी दिल की
पल में मिलती राहें मुश्किल मंज़िल थी
जो औरो से था कुछ अलग मेरे दिल में
जो था मेरे संग-संग हर एक मुश्किल में
जिसने थामा था मुझको बाँहों में बाँहे डाले
जो आया था अंधेरे बनके उजाले
मेरा हमदम वो मेरा हमनशीं आ रहा है
मेरे मौला मेरा दिल घबरा रहा है
मेरे मौला मेरा दिल घबरा रहा है
-देवेन्द्र

Friday, July 9, 2010

आज

आज,
अपने ही कुत्तों को
पत्थर उठाकर
मार दिया मैंने
क्यूँकि भूँकते थे
वो
उन हाड़-तोड़ मेहनत करते
सेल्समेनों
पर........।

Wednesday, June 30, 2010

नन्हा कल्ला

गर्जन-तर्जन से ध्वनित था संसार,
नीचे धरा पर गिरती जल-राशि-अपार।
उधर आषाढ़-मध्य-बिन्दु पर
विवर्धित-नवविभात था;
हर ओर फैला बूँदों का निनाद था,
कि तभी किंचित पा चेतना
फूट पड़ा तरू-शाख पर
नन्हा-सा कल्ला;
देख जग को प्रथम बार
पोपला वह उसनींदा-नंगा,
झाँक कर करता स्वागत
गिरते जल का हाथ पसार;
उधर लिए स्मित एक बूढ़ा पत्ता
चकित शिशु के वीक्ष्ण पर कर दृष्तिपात
अचम्भित था स्वयं देख
बचपन का अद्भुत साक्षात्कार,
सहसा टूटी तंद्रा,सुना स्वर,तड़ित
थी कहीं कौंधी;
लपका वह बूढ़ा तत्क्षण
भर शिशु को अंक में,छिपा लिया उसे ओट में,
तब कसमसाया वह बच्चा,
गुस्से में लाल हुआ
और भीगने को
पुनः हुआ ज्यों वह तत्पर
ढेंपी* पकड़ दिये बूढ़े ने उसे दो कसकर,
बुक्का फाड़ रोने वह लगा,
तब देख बूढ़े ने
किसलय को अपलक,
काँपते होंठों से उसको चूम लिया;
उधर तेज गति थी बारिश के प्रवाह की
तड़ित भी अहरह
कौंध रही,
अंततः
रात भर का भीगा
वह पीला पत्ता
तड़के
अकस्मात डंठल संग टूट गया...
बारिश भी चुप थी
उधर आँख खोलता वह नन्हा कल्ला
अब शिशु न रहा
भर अवायु को पर्णरन्ध्र से वायु को
सकल विश्व में बाँटने लगा।

ढेंपी - डंठल, कल्ला - अंकुर 

Sunday, June 20, 2010

अब्बा

मैं ख़ाहिफ़* हूँ।
हर पहर जाग जाता हूँ चौंककर दफ़्अतन*
मेरी पत्नी मुझे बूढ़ा कहती है
और मैं हँसता हूँ
मसनूई* हँसी
उसके इस परिहास पर
मगर तीस का भी तो नहीं हुआ हूँ मैं
फिर भी नींद से बेहाल हूँ;
आज फिर
गजर बजने पर
उठ गया आदतन आधी रात को
देख वही कुछ साये
अब्बा के कक्ष में.................,
वे मौत के फ़रिश्ते हैं
जो रोज़ आ जाते हैं इसी तरह बेआहट-बेखटके,
मैं चूमता हूँ सोते में अब्बा को,
सावधान हो बैठा ही रहता हूँ
भोर की पहली किरण के उगने तक.......।
ख़ाहिफ़*-भयभीत, दफ़्अतन*अकस्मात, मसनूई*बनावटी