ठोस
थी
वो अकोदिया की लड़की
पार
कर गई थी
कई
पड़ाव
लड़कों
की साईकिल चलाते-चलाते
दिखतीं
हैं तो दिखें
गोरी
पिण्डलियाँ
किसे
पड़ी है घूरती नज़रों की,
मलिन
थी
वो अकोदिया की लड़की
बुहारती
थी उज्जैन की सड़कों को
गप्पें
भी मार लेती थी
भरे
दाने के छोर* बेचते लड़के से
आलीशन
मकान के किसी कोने पर,
दूर-दूर
तक सुनाई आती थी उसकी आवाज़ की खनक
कि
टोकना पड़ता था उसे
कि
चुभते थे
उसके
बेमतलब-बेझिझक-बेतरतीब-ठहाके
बेबूझ-सी
रहती थी
अकोदिया
की वो लड़की
अकसर……।
छोर-
हरे चने
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