उस रोज़
भीड़ जमा थी
रईस-बुर्जुआ-टुच्चे-शातिर
सभी तो मना कर रहे थे
जेस्चर भी उनका यही दर्शा रहा था;
”उसके जुड़वाँ हुए हैं……..,
वह वृक्ष-तल-वासिनी
मुक्तिबोध की वही पगली नायिका
वहीं अधजले-फिके-कण्डे और राख,
नहीं थी अब वह एकाकी,
चिपकी जिससे
दो नन्ही-नन्ही झाईं
सहसा भीड़ चिल्लाई,
“लड़कियाँ हैं........“
और भीड़ छँटने लगी, ठठाते हुए
कि तभी बज उठी थाली,
समाज की वर्तमान स्थिति पर सटीक चोट करती रचना। वाह।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
शानदार और उम्दा रचना!! आनन्द आया.
ReplyDeleteसुंदर रचना है भाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर है भाई ... क्या बात है !!
ReplyDeleteकविता का एक तीर और दो निशाने... भीड़ की मानसिकता और समाज का खोखलापन दोनों उजागर कर दिए...बहुत सुंदर!!
ReplyDeleteक्या कहने। वाह। वाह। वाह। आपकी तस्वीर के लिए भी वाह। वाह। वाह।
ReplyDeletehttp://udbhavna.blogspot.com/
अच्छा लिखा है ..है ,,,इतना कुछ बदलने पर भी देश की इस समस्या में पर्याप्त सुधार नहीं हो रहा इसे विडंबना कहे या दुर्भाग्य मुश्किल है ,,,,,लडके -लड़की के जन्मकी आपने दोनों ही सूरतों का रोचक चित्रण किया ,,,,सरहानीय पोस्ट ....///जवाब में ये.... लिखा था कभी ..
ReplyDeleteअगले दिन बेटी माँ की बिमारी और बाप की सुख-सुविधा लिए बहुत कुछ कर गयी,
दुनिया की गिद्द नज़रो से खुद को बचाने के लिए एक अबला फिर खुदखुशी कर गयी,
समाज के कुछ ठेकेदार हंसकर बोले ,लड़की बिक गयी , एक इज्जत फिर लुट गयी ,
हम बोले ! सच्चाई बिक गयी, इज्ज़त का पता नहीं , हाँ, इंसानियत तो लुट गयी।
ठीक-ठाक हो तो ब्लॉग पर आकर पूरी पढ़ लेना ...
Uf! Kaisi takleef de mansikta hoti hai is nirdayi samajki..!
ReplyDeleteसामाजिक विद्रूपता का चित्र खींच दिया ।
ReplyDeleteवर्तमान में भी अपने समाज का ये भेद स्पष्ट नज़र आता है ... सच का आईना है आपकी रचना ...
ReplyDeleteसुंदर रचना
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