चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Monday, July 14, 2008

याद

सदियों से जो बझवट होने का
दंश चुपचाप झेलती रही
आज वह परित्यक्ता कहलाई जाती है
वह पुरूष
जिसने बेशर्मी से आरोप गढ़-मढ़ा था
अब दूसरा विवाह कर जीवन
बिता रहा है
इस सब मै उसी स्त्री का मुक्त हाथ था
जिसने पुरूष को जना था
आज
पता नहीं किसके
पुत्र को वारिस समझ पालती है
सब जगह चुप्पी है
खामोशी हे
मसान-सी शान्ति है
पहली की याद आज भी घर के
हर कोने मैं बसती है ।

1 comment:

  1. अपने मनोभावों को बहुत बढिया पेश किया है।

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