चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Monday, July 14, 2008

टूटते सपने

उस दिन खाने के बाद जब हाथ धोय
और तोलिये से पोंछे
और जब बैठक मै आ गया तो मेरा
ध्यान हाथ की तरफ़ गया
उँगलियों में दाल लगी हुई थी
यह देख बरबस बचपन याद आ गया
जब घंटी की आवाज सुन हम भाई-बहिन
जल्दी में बिना ढंग से हाथ धोय
दौड़कर दरवाजे की तरफ़ चले जाते
जा कर स्टूल रख कर उस पर खड़े हो
दरवाजा खोलते या फ़िर
माँ का इंतजार करते चीख-चीख कर उन्हें बुलाते
बाहर पिताजी होते जो बाजार से आते थे
फुदक-फुदक कर हम सब उनके पीछे हो लेते
एकदम शांत चुपचाप अच्छे बच्चों की तरह
हम सब व्यवहार करते
उनके लिए हम दौड़ टंकी का पानी ले आते
मटका ऊपर रखा था औए फ्रिज था नहीं
तब माँ डाट लगाती और मटके से पानी लाती
फ़िर लाइन से हम इंतजार करते लेकिन
पिताजी आराम करने चले जाते , माँ भी
किचिन मै घुस जाती , तब हम बैग को
उलट-पलट कर देखते
तो सिर्फ़ साग सब्जियां ही दिखती
एक दूसरे का चेहरा हम देखते
क्या कहें , क्या बोले समझ मैं नहीं आता
ऐसा कई बार होता है जब हमारे सपने टूटते
वह सपने जो आठ-आने की टॉफी मैं बसे थे

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