चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Saturday, May 1, 2010

पर

बारिश से भीगी
उस शाम को
देखा था
बुर्क़े के भीतर
कॉरसेट पहने उस
बुर्क़ानशीं को
और
जाने किस आलम में
आगे बढ़कर
छोटी-सी
बिन्दी लगा दी थी
उस शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर
वो स्तब्ध
देखती ही रही
और चली गई
फिर मिलने का वादा करके
(अगले दिन)
-वो ही शाम  थी
-वो ही बारिश
-वो ही बुर्क़ानशीं
पर.......??? 

12 comments:

  1. बुर्कानशीं थी तो बिंदी कैसे लगायी? चेहरा तो ढाका ही होगा.....पर ये पर बहुत ज़बरदस्त है.....मन कि भावनाओं को बताती खूबसूरत रचना..

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  2. यही वो "पर" है जिससे आकाश से भी ऊँचा उड़ पाते हैं ख़्याल-ओ-जज़्बात।
    उड़ते रहिए! ऊँचे - और ऊँचे…! और भी ऊँचे …

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  3. एक राह पर चलते चलो ,मंजिल स्वयं पास आती चली जाएगी |
    आपका ब्लॉग में बहुत प्रभावशाली है |

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  4. आपका ब्लॉग में बहुत प्रभावशाली है |

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  5. par nazare use dhundhati rahin----------par vaada karke bhi vah nazar nahi aai.par barish ki fuharo ke beech uske maathe par anjaane hi bindi laga kar aapne uski sundarta me char chand jaroor laga diya.
    poonam

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  6. Par? Yahin pe kyon ruk gaye?

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  7. Sab kuchh vahi tha par bat vo nahi" hai na. bahut achhi post

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  8. बहुत प्रभावशाली है |

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  9. दिल खोल कर रख दिया आपने .... पर आयेज की कहानी भी तो कहें .... बहुत लाजवाब ...

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