बारिश से भीगी
उस शाम को
देखा था
बुर्क़े के भीतर
कॉरसेट पहने उस
बुर्क़ानशीं को
और
जाने किस आलम में
आगे बढ़कर
छोटी-सी
बिन्दी लगा दी थी
उस शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर
वो स्तब्ध
देखती ही रही
और चली गई
फिर मिलने का वादा करके
(अगले दिन)
-वो ही शाम थी
-वो ही बारिश
-वो ही बुर्क़ानशीं
पर.......???
nice
ReplyDeletepyar ki baarish waah...
ReplyDeleteबुर्कानशीं थी तो बिंदी कैसे लगायी? चेहरा तो ढाका ही होगा.....पर ये पर बहुत ज़बरदस्त है.....मन कि भावनाओं को बताती खूबसूरत रचना..
ReplyDeleteवाह भाई बहुत सुंदर.
ReplyDeleteयही वो "पर" है जिससे आकाश से भी ऊँचा उड़ पाते हैं ख़्याल-ओ-जज़्बात।
ReplyDeleteउड़ते रहिए! ऊँचे - और ऊँचे…! और भी ऊँचे …
एक राह पर चलते चलो ,मंजिल स्वयं पास आती चली जाएगी |
ReplyDeleteआपका ब्लॉग में बहुत प्रभावशाली है |
आपका ब्लॉग में बहुत प्रभावशाली है |
ReplyDeletepar nazare use dhundhati rahin----------par vaada karke bhi vah nazar nahi aai.par barish ki fuharo ke beech uske maathe par anjaane hi bindi laga kar aapne uski sundarta me char chand jaroor laga diya.
ReplyDeletepoonam
Par? Yahin pe kyon ruk gaye?
ReplyDeleteSab kuchh vahi tha par bat vo nahi" hai na. bahut achhi post
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली है |
ReplyDeleteदिल खोल कर रख दिया आपने .... पर आयेज की कहानी भी तो कहें .... बहुत लाजवाब ...
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