चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Tuesday, April 13, 2010

लाश

जबकि

दोपहर बेहद दिलचस्प है..........।

और हम

हस्बे मामूल*

डर रहे हैं

लाश से

खासतौर पर जब हमने खुद

अपने हाथों से मारा हो..........

हमें लगता है

कि वह मुरदा

कहीं आँखें न खोल ले

लिहाज़ा कई घण्टों तक हाथ में

चाकू लिये या कुछ भी

उसका इंतज़ार करते हैं,

कि कब वह आँखें खोले

और हम उसे

दोबारा गोद दें................

ये लाश

किसी की भी हो सकती है

पर होती है

अक्सर

-किसी किसान की

-किसी जवान की

-किसी भूतपूर्व नक्सल की

-बाँध में डूबे किसी गाँव की

और मेरे इलावा

कोई भी हो सकता है

हत्यारा.........................

जैसे कि आप

अरे! डरिए मत........

हा.....हा......हा......हा........

जबकि दोपहर बेहद दिलचस्प है ।

तब भी

वक्त खिसक लेता है दम साधे

और हम(यानी कि मैं क्यूँकि हम से डर भाग जाता है)

बैठे ही रहते हैं उसके पास

उन बंद आँखों में आँखें डालकर

अगरचे

मेरा उल्टा पाँव सो चुका है

और मारे दहशत के

मैं काँप रहा हूँ

कि लाश की जद में सिर्फ़ मैं ही हूँ

पर फिर भी

मैं बात कर सकता हूँ,

-बिना आँखें हटाए लाश से

अपनी दोस्त से

बेसाख़्ता....................................

-बिना आँखें हटाए लाश से

कर लेता हूँ कामुक-चिंतन.........

-बिना आँखें हटाए लाश से

हाथ मिला लेता हूँ

कत्ल करने को

जाते मोस्साद के एजेंट से.......

और

-बिना आँखें हटाए लाश से

गुज़र जाता हूँ

मिर्ज़ा-मलिक के

पीछे भागते

जोकरों के समूह से.............

आह........पर,

अब मैं थक चुका हूँ

डर रहा हूँ

खुद के एकालाप से

देखिये मेरा

दूसरा पाँव भी

सो चुका है

और मैं लाचार जानवर-सा पड़ा हूँ

किसी सूनसान बियाबान में;

रह-रह के झुरझुरी-सी

देह में फैल रही है

अब...मुझे इंतज़ार है,

पुलिस का

और देखिए तो

सायरन बजाते हुए गुज़र जाती हैं

पुलिस की ढेर-गाड़ियाँ......................,

इस सन्नाटे में

उस........उस

लाश में हरकत हुई है, हाँ....हुई है.....

मेरा चाकू छिटक चुका है

कब का ....

और गूँजती है तीखी चीख...................

वाक़ई में वाक़या

दिलचस्प था .................।

*हस्बे मामूल-हमेशा की तरह

प्रणव सक्सेना amitraghat.blogspot.com”

20 comments:

  1. Aapne to raungte khade kar diye!

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  2. हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.

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  3. kaafi dilchasp or oonche level ki rachna hai..

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  4. प्रणव जी, एक आम आदमी इतना डरता क्यों है??
    जुर्म करे तब भी...ना करे तब भी..!!!!
    ....भूतपूर्व नक्सल क्यों????????
    आपकी कविता हमेशा अलग सी होती है..
    आपका शब्द-कोष काफी वृहद है...नए-नए
    शब्दों की जानकारी प्राप्त होती है...धन्यवाद.

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  5. lash se kamuk chintan karne ki soch gahri he
    is laaaash ki cheekh sune?ye duniya behri he
    such bata ye rachna teri he?

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  6. आपकी रचना बुद्धि की तो पूरी कसरत कराती है लेकिन है एकदम स्टीक । शायद मुझे ही समझने में काफ़ी मशक्क्त करनी पड रही है या फ़िर सभी पाठ्कों की यही हालत है । नए-नए शब्द और शब्दों में खींचा वास्तविक चित्र बेहद मार्मिक और स्टीक है ।

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  7. वाकई में दिल्चस्प है कविता । अगर सच में लाश आँखे खोलने लगें तो मारे डर के साँस ही अटक जाएगी। हकीकत में हमारे भीतर आत्मा होती है जिसका कत्ल हम खुद अपने हाथों से करते हैं और अगर किसी तरह वो आँखें खोलने की कोशिश भी करती है तो हम उसे दोबारा गोद देते हैं ...बहुत ही सार्थक और सामयिक कविता.........."

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  8. एहसास ... अपनी लाश जिंदा लाश ... आँखें खोलती .. रूप बदलती ... खुद की आत्मा कुधु के सामने खुद से करती अट्टहास ... अपने ही डर से डरती .... पुलिस की गाड़ी ... सन्नाटा ...
    कमाल की कविता ...

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  9. त्रासदिक । रचना प्रशंसनीय ।

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  10. behtreen rachna.... kya baat hai... kya baat hai.. kya baat hai...

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  11. हम ही हत्यारे हैं और आक्रांत भी हम ही
    सच को मारकर भयाक्रांत भी हम ही
    ..और गूँजती है तीखी चीख...!
    ..वाकई में वाकया (kavita) दिलचस्प है।

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  12. bahut hi gaharai se likhi gai post,es post ko likhte hue kya aap ko dar nahi laga? aapke shabdon ka chyan bhi aaapki gahari soch ko dikhlata hai.

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  13. अब की मेरी हिन्दी योग्यता से कविता समझना तो मुश्किल है।
    लेकिन एक वाक्या याद आई
    ...
    "चेरी के पेड़ के नीचे लाश दबाया हुआ है
    ।{
    "

    एक जापानी लेखक ने चेरी फूलों
    की
    डरावना सुन्दरता को ऐसा अभिव्यक्त की

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  14. hum sab katil hain... kisi na kisi rup me... bhitar ke manushya se aapne parichay karaya... sunder rachna ....

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  15. बहुत ही सुन्दर और दिलचस्प रचना! बधाई!

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  16. hmm...rachna bhi ant tak dilchasp bani rahi

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  17. बहुत ही असामान्य, अप्रतिम और अद्भुत रचना जो स्वप्न और यथार्थ के बीच की तन्द्रा को कहीं भी टूटने नहीं देती। बिमल मित्र के "मुजरिम हाजिर" की शुरूआती दृश्यावली कुछ याद आ गई। ग़लत मत समझिएगा - वह इससे कहीं भी नहीं मिलती-जुलती सिवाय इसके कि उसमें भी एक लाश है, जो दिखाई नहीं जा रही मगर उसकी मौजूदगी का एहसास कराया जा रहा है अद्भुत वर्णनात्मक शैली में।
    शाबास!(अगर यह शिष्टाचार के विपरीत न हो तो)

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  18. रचना प्रशंसनीय ,,,,,,,,,,,

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