अब
जबकि छोड़ आया हूँ मैं
कुंता को बरघाट*
और भूल चुका हूँ
उसका सादा-सा चेहरा
दो ही दिनों में,
तब भी,
क्यूँ कर रहा हूँ
उस दिन का विश्लेषण
अपने मित्र के साथ उस
सूने से पार्क में
अपरिचित मुर्गाबियाँ देखते हुए
शाम को
क्या इसलिये कि
पूछ रहा है वह
उस रात की शुरूआत
जब उतरा था
स्त्रियों की तरह
आँखें बन्द कर मैं
समाधि में,
और कुछ ही देर बाद
किसी शरणार्थी-सा
दुबक गया था
उसके भीतर
और
खरोंचता ही रहा था
जाने कितनी देर
छाती पर गुदे
गोदने को.............,
”हाँ,केवल दो रोज़ में ही
उतर गई थी
बोतल में.......” मैंने कहा
पर भूल गया जान के भी
उसको बताना कि
-बेझिझक थी कुंता
-बखान से परे...........,
उस ढुलक चाल से उतरती
उघरारी रात में
दरख़्तों को छूती बहती बयार में
जब ज़िंदगी
छटपटायी थी
तब अधकच्च मँजरियों की गंध लिये
छूने दिया था उसने मुझे
स्वयं को..............,
और ढह गया था मैं
उस आदिम उच्छावास में
जबकि होता उल्टा है
“बदचलन होगी...”मित्र बोला
“नहीं...................,”
पर रात सरक रही थी
चुपके से
आढ़त में माँगे
अहसास लिये,
और कुंता भी…....,चली गई,
पर उस रात
खोला था उसने भेद
कि मुझसे भी पहले
किये थे कई
आलिंगन,
पर छूने दिया था उसने
सिर्फ़ मुझे ही
खुद को......................!
अब
जबकि भूल चुका हूँ
उसका सादा-सा चेहरा
तीन ही दिनों में
तब भी क्यूँ..............................|”
*बरघाट-एक जगह का नाम
प्रणव सक्सेना
amitraghat.blogspot.com
सुन्दर रचना
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ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना...
ReplyDelete...बहुत खूब, प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeletebehatareen kavitaa.........."
ReplyDeletedevendra
bahut hi gahri abhivyakti...
ReplyDeletesunder prastuti..
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeletekunta ki sahaj sweekarokti aur kavi ke mein ke beech panpa pyar deh se pare ek alokik pyar ko engit kerta hai aur uska ahsasa kunta ke na rehne per bhi uske mein ke jeevan mein ek pavitra fool ki tarah khilta hai ..yehi pavitrta yehi sughandh es kavita ki khoobi hai ..yeh sughandh fale es kavita ke peeche kavi kaa jo mantavyahai use paane mein kavi safal hua hai ....dhanyawad amritghat
ReplyDeleteअजीब कशमकश को झेलती हुयी लगती है आपकी कवित .... कई बार पढ़ी ... हर बार यही लगा ... .
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDelete"बिल्कुल अजीब लगी.........."
ReplyDeleteरमा शंकर
सर्व-प्रथम तो आपको धन्यवाद देना चाहुंगी कि आप नियमित मेरे ब्लाग पर आते हैं और हमारा उत्साह वर्धन करते हैं । आपकी कविता के लिए मैं भी कुछ हद तक वही कहना चाहुंगी जो दिगम्बर जी नें कहा - उलझन भरी भावनाएं अजीब सी कशमक्श मे आपकी कलम से उतरी हैं , लेकिन इसकी सादगी आकर्षित करती है , कविता अच्छी लगी...सीमा सचदेव
ReplyDeleteBina kisi laag lapet ke likhi gayi, goodh gahan panktiyan!Behad asardar!
ReplyDeleteparabhavsshaali..
ReplyDeletejaise lehre chalti hain... uthti ghati hai... itrati ithlati hai... aapki kavita badhti hai... bahut kashamkash hai...
ReplyDeleteटिप्पणी आवाज़ साइट पर दे आया हूँ। आइन्दा यहीं आया करूँगा।
ReplyDeleteकुंठा
ReplyDeleteआपका तात्पर्य शायद इस शव्द से है .........
tha से काम चलता है .
बहुत गहरी अभिव्यक्ति हक़ि शुभकामनायें<
ReplyDeletebahut sunder rachna
ReplyDeleteबेहतरीन रचना....
ReplyDeleteबहुत खूब, प्रभावशाली .....
ReplyDeleteबहुत बढिया रचना।बधाई।
ReplyDeleteबरघाट की कुंता..."
ReplyDeleteकिये थे आलिंगन कई
पर छूने दिया उसने
सिर्फ मुझे ही....
प्रणव जी, आप तो कहते हैं आप सिर्फ
कठोर ही लिख सकते हैं...!!!! ये तो
वाकई मर्मस्पर्शीय है..मेरे ब्लॉग के लिए
एक बहुत उम्दा रचना प्रेषित करने हेतु
आभार....
http://wwwrolipathak.blogspot.com/
बहुत खूब, प्रभावशाली .....
ReplyDeleteइतनी शानदार अभिव्यक्ति कि जीवंत हो गई कुंता.
ReplyDeleteझूठ कहता है उसका प्रेमी कि भूल चुका हूँ उसका चेहरा तीन दिनों में ही..!
--वाह! बेहतरीन कविता के लिए बधाई।
आपकी कुंता को आते ही पढ़ गया था..और देखो इतनी दिनों मे बार-बार वापस आना पड़ा..कविता किसी फ़ाँस की तरह जेहन मे चु्भती सी रहती है लगातार...यह कुंता दरअस्ल हमारी उन निष्कलुषताओं की प्रतीकमात्र है..जिनका सौदा हम क्षणिक सुखों की कीमत मे कर देते हैं..मगर कहीं अर्धनिद्रा मे स्मृति के वही टुकड़े टूटी काँच की तरह गड़ते रहते हैं..
ReplyDeleteक्या उसका सादा चेहरा हम तीन दिनों मे भूल कर भी भूल पायेंगे कभी...?
आपकी यह कविता भी भुलायी नही जा पायेगी...
कविता कई बार पढ़ी..फिर फिर से अपनी और खींचती है,सोच कही दूर चली जाती है कुंता के आस पास..कविता विलक्ष्ण और श्रेष्ठ है.
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