वैश्विक होते संसार में
हर ओर अतृप्त इच्छा-लालसा-कुंठाओं की
जलती लाशों से उठती लपलपाती झंझार से
भागता हूँ विशून्य में
थकहार ढूँढ़ता हूँ
पेशल रात को
उसकी
अंकोर में सिर रख सो जाना चाहता हूँ
उमगती भोर तक;
कि तभी
ठकमुर्री से देखता हूँ
दिगंत-व्याप्त-रात की लोनाई लीलती
ठसक-भरी शबल रोशनियों में
विलीन होते
तारों और चंद्रचाप को,
और सुनकर
चित्तविप्लव में डूबे
सारल्यता को छलते
जनसमूहों के विलज्ज ठहाके
भागता हूँ
उनकी घूरती अपलक आखों से दूर
फ़क़त रात की तलाश में
और छलक आते हैं आँसू
अभी भी झपकता हूँ मैं पलकें कि तभी
खेंच लेती है कोई अदृश्य शक्ति
वैवर्त-सा घूमता हूँ अपनी ही धुरी में
झड़ जाती हैं पलकें
और शामिल हो जाती मैं भी
अपलक आँखों के गिरोह में ।
प्रणव सक्सेना
Amitraghat.blogspot.com
हम ढूँढ़ते फिरते हैं रातों को ताकि सब चीज़ें छुपा सकें, पर मुझे तो लगता है की रात से अच्छा कोई canvas नहीं है, दर्द, प्रेम, काम, सभी रंग तो अपने चटख रंगों में मुखरित होते हैं यहाँ....
ReplyDeleteLajawaab abhivyakti....bahut bahut lajawaab !!!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteसच्चाई बयां करती लाजवाब रचना लगी ।
ReplyDeleteSundar rachana !
ReplyDeletebahut hi achcha likhte hain aap.
ReplyDeletegahan bhaav aur safal abhivyakti.
bahut hi achchee kavita.
पेशल ,शबल ka arth batayenge please.
ReplyDeleteअच्छी सामायिक कविता है ,ठक मुर्री का प्रयोग बढ़िया है
ReplyDeleteBahut khoob!
ReplyDeleteHoli kee anek shubhkamnayen!
"जलती लाशों से उठती लपलपाती झंझार से"
ReplyDeleteहिन्दी काव्य को समृद्ध करने वाली रचना है। बधाई॒
sashakt shabdawali ka prayog hai..acchhi rachna...badhayi.
ReplyDeleteholi ki shubhkamnaye.
'आप और आपके परिवार को होली की शुभ कामनाएं'
ReplyDeleteaapki yah post nihshabad kar gayi.
ReplyDeletepoonam
insaan zindagi bhar kuch dhoondhta rehta hai...par shayad hamkhud hinahijaanteasalmei chahiye kya...bahut sunder rachna
ReplyDeleteशायद मेरे पास तो आपकी रचना के लायक शब्द भी नही है --- अद्भुत भावाभिव्यक्ति है। शुभकामनायें
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