चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Monday, February 22, 2010

वैश्विक गिरोह्

वैश्विक होते संसार में

हर ओर अतृप्त इच्छा-लालसा-कुंठाओं की

जलती लाशों से उठती लपलपाती झंझार से

भागता हूँ विशून्य में

थकहार ढूँढ़ता हूँ

पेशल रात को

उसकी

अंकोर में सिर रख सो जाना चाहता हूँ

उमगती भोर तक;

कि तभी

ठकमुर्री से देखता हूँ

दिगंत-व्याप्त-रात की लोनाई लीलती

ठसक-भरी शबल रोशनियों में

विलीन होते

तारों और चंद्रचाप को,

और सुनकर

चित्तविप्लव में डूबे

सारल्यता को छलते

जनसमूहों के विलज्ज ठहाके

भागता हूँ

उनकी घूरती अपलक आखों से दूर

फ़क़त रात की तलाश में

और छलक आते हैं आँसू

अभी भी झपकता हूँ मैं पलकें कि तभी

खेंच लेती है कोई अदृश्य शक्ति

वैवर्त-सा घूमता हूँ अपनी ही धुरी में

झड़ जाती हैं पलकें

और शामिल हो जाती मैं भी

अपलक आँखों के गिरोह में ।

प्रणव सक्सेना

Amitraghat.blogspot.com

15 comments:

  1. हम ढूँढ़ते फिरते हैं रातों को ताकि सब चीज़ें छुपा सकें, पर मुझे तो लगता है की रात से अच्छा कोई canvas नहीं है, दर्द, प्रेम, काम, सभी रंग तो अपने चटख रंगों में मुखरित होते हैं यहाँ....

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  2. Lajawaab abhivyakti....bahut bahut lajawaab !!!

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  3. सुन्दर अभिव्यक्ति !!

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  4. सच्चाई बयां करती लाजवाब रचना लगी ।

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  5. bahut hi achcha likhte hain aap.

    gahan bhaav aur safal abhivyakti.

    bahut hi achchee kavita.

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  6. पेशल ,शबल ka arth batayenge please.

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  7. अच्छी सामायिक कविता है ,ठक मुर्री का प्रयोग बढ़िया है

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  8. Bahut khoob!
    Holi kee anek shubhkamnayen!

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  9. "जलती लाशों से उठती लपलपाती झंझार से"
    हिन्दी काव्य को समृद्ध करने वाली रचना है। बधाई॒

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  10. sashakt shabdawali ka prayog hai..acchhi rachna...badhayi.
    holi ki shubhkamnaye.

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  11. 'आप और आपके परिवार को होली की शुभ कामनाएं'

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  12. insaan zindagi bhar kuch dhoondhta rehta hai...par shayad hamkhud hinahijaanteasalmei chahiye kya...bahut sunder rachna

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  13. शायद मेरे पास तो आपकी रचना के लायक शब्द भी नही है --- अद्भुत भावाभिव्यक्ति है। शुभकामनायें

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