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Thursday, July 24, 2008

माँ

रोज दरीचे खोलकर
देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
बाहर आ कर पाता हूँ
बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
स्नेहसिक्त आँखे
और डाल देता हूँ
एक लोटा रस्मी पानी
मुस्कराती है वह तब भी
छूता हूँ जब मै उसके
पियराते पत्ते
बर्गरेज अभी दूर है
चश्मा भूल आया हूँ मेज पर वो रखा है
मैं मुड़ता हूँ
गिरती है कुछ बूंदे आंसुओं की
पलट कर देखता हूँ
मुझे लगता है जैसे माँ बेठी हो सामने

4 comments:

  1. रोज दरीचे खोलकर
    देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
    बाहर आ कर पाता हूँ
    बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
    स्नेहसिक्त आँखे
    और दाल देता हूँ
    एक लोटा रस्मी पानी
    मुस्कराती है वह तब भी
    छूता हूँ जब मै उसके
    पियराते पत्तेब
    हुत अच्छा लिखा है। स्वागत है आपका।

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  2. बहुत सुन्दर मनोभावनाएँ!

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  3. उम्दा. खुबसूरत. क्या लिखा है!

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