चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Friday, September 5, 2008

वह बूढ़ा

उस कडाके के ठार में उपरनी से टांट ढांपे
डूबा सरापा गर्द में वह जर्जर बूढ़ा
जो रोशनपुरा की खड़ी चढाई पर
सरोसामान से लदा ठेला खींचतें-खींचतें
मन्झियार चढ़ाव आ खड़ा हुआ और टस से मस नहीं हुआ
जिसके सलवटी लिलार से ढलकता है पसीना
और कभी भी वह रपट सकता है
जिसके एक और राह से सटी झुग्गियों में से
अपना सा नाता समझ सब उसे दुबीचा से देखतें हैं
मगर वह अनुभवी अपने में तल्लीन ताजरिब से खड़ा
परिस्थिती को तौलता हैं और तर होती बरोनियों के
सूखने की जोह में ढांस को बजब्र रोकता है
दूबदू जिसके दुतरफा धिन्गाई से धापती
देसी देसावरी गाड़ियों के पल्लड़ और पार्श्व में स्थित
जुगादरी हनुमंत बुतकदा
मुस्लमान होकर भी
चुपके निहुरता है और किसी अज्ञात पुरचक से
ऐंठी पिराती फिल्लियों पर जोर लगा
धूजते पैरों को पुनः थामता है
वह अपने इस जीवन से निरवार होना चाहता है
की तभी अकस्मात
सम्मुख उसके बाट जोहती परित्यक्ता बिटिया
और ठण्ड में ठिरता नंग धढंग धेवता दिखता है
उन्हे देख उसास कर वह पुनश्च जीवन से गस जाता है
और अपने मैं ही कर संलाप
सरिया कर सकत अपनी
जीवन को ठेले पर लादे चल पड़ता है
स्मृति मैं उसके दशकों पूर्व मरी माँ का
उष्ण स्नेह स्पर्श और फीकी अरहर दाल में
मिर्चा का धुंगार तिरता है

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